Thursday 25 August 2011

मैं अन्ना नहीं हूं

मैं अन्ना नहीं हूं और तुम भी अन्ना नहीं हो सकते और सभी अन्ना नहीं हो सकते,


हम अन्ना के डुप्लीकेट, कापी, वैसे ही कैसे हो सकेते हैं ?

पूरे देश ने यह गलती सदियों से की और अब फिर दोहराये जाता है।

जब महावीर आते हैं जिन हो जाते हैं.... तो केवल उनको अपना मान लेने वालों के जिन होने की सारी संभावना खत्म हो जाती है। यों कहें कि कोशिश की मूल भावना ही शांत हो जाती है। जब बुद्ध आते हैं तो लोग मान ही लेते हैं कि बुद्ध की कापी करके बौद्ध हो जाने की। इनमें, जिनमें वो तत्व, जो बुद्ध ने अपनी चेतना से पाया। अपनी-अपनी समझ की चेतना से अपना और अपने तरीके का, अपनी तरह का जो तत्व समझ आना था अनेक लोग उससे वंचित रह गये जबकि उनमें इस तरह की महती संभावनायें थी। तो समाज से बाहर जाना... एकांतिक होते जाना.... इससे..सहूलियत थी, क्योंकि समाज नहीं था एकांत में...

धर्म, समाज में अवरोध पैदा करता है..... यो कहें तो समाज के विरोध में धर्म है। मुझे लगता है समाज अपने बनाये तौर तरीकों से अपने परिवेश निर्मित करता है और धर्म उसमें सत्य के पौधे लगाता है जिनमें से सुन्दर फूल आयें और सुगन्ध बहे। धर्म चित्त की दशा ठीक करने पर जोर देता है और चित्त की दशा आत्मानुशासन पर जोर देती है। यह यह आत्मानुशासन इस बात के लिए है कि जो तुम अपने लिए नहीं चाहते उसे दूसरे पर मत करो...जैसा तुम अपने लिए चाहते हो ठीक वैसा ही दूसरे के लिए भी चाहो...

इसलिए जो शांत और स्थिर बैठे हैं तुम उनका अनुसरण करने को तैयार होते हो क्योंकि कुछ अधिक करना बाकी न रहा। तुमने उनके शांत होने और स्थिर बैठने के पूर्व की साधना पर गौर हीं नहीं किया कि वे कितने अथक प्रयत्नों से गुजरे... क्या नहीं किया ऐसे हो जाने के लिए जो वे दीखते हैं अब हमें ऐसे...


कृष्ण को मानने में कष्ट है... कृष्ण भागते हुए से हैं वे सदा तुम्हें दौड़ते रहने को ही कहेंगे, उनके अक्स को तुम अपना न कह सकोग, तुम कृष्ण की तरह मुस्कुरा नहीं सकते, नाच नहीं सकते, प्रेम नहीं कर सकते, दुष्टों का दमन नहीं कर सकते, राजनीति की सर्वोच्च विपदाओं में निर्णय लेने का साहस तो क्या उसकी आंधी के सामने खड़े रहने का स्वप्न भी नहीं देख सकते, कृष्ण पूरे जीवन अपने परिवेश को बदलने में ही लगे रहे, जन्म से स्थितियों का जो दंश उन्होंने झेला, व्यवस्था के परिवर्तन को अपने जीवन के केन्द्र में रखा, पूरे जीवन प्रयोग करते रहे अपने पर ही....उनके जीवन में परिवर्तन की धारा अपने इतने वैविध्य में दीखती है कि जो व्यक्ति उस जैसे जीवन को अंगीकर न करे वह कृष्ण के जैसा हो जाने की कल्पना ही अपराध करने जैसा मान लेगा। 


देश पिछले कई सालों से गांधी का देश कहलाता है। गांधी सत्य के मार्गी हैं और सत्य इतना विशाल भाव है कि वह व्यक्ति का व्यक्तिव हो जाता है। अब गांधी एक भाव हैं.. सत्य का भाव.. इसलिए इतने सालों में किसी को यह हिम्मत नहीं आई कि वे वे अपने आप को गांधी के जैसे या गांधी डुप्लीकेट या फोटो कापी ही कहलवा लें। देश की राजनीति में किसी भी व्यक्ति को मौका ही नहीं मिला, यों कहें कि अब हमारे देश की रीति-नीति और राजनीति ने उन सारी संभावनाओं को खारिज कर दिया है जहां बहुत सारे गांधी आज देश के लिए कुछ करते होते...

64 साल के बाद हमें उस भाव की झलक दीखती है जो हमें दिखता था गरीब और बेबस लोगों के पक्ष में पिटते हुए हिंसा न करने का संकल्प साधे व्यक्ति में.., जब राजे-महाराजे पुनः राज करने का सपना देखने लगे थे तब अंतिम आदमी के पक्ष में खड़े व्यक्ति में, जब देश स्वतंत्रता का सुख और विभाजन का दुख झेल रहा था तब दीखते थे, भारत के शांतिपूर्ण आदर्श भविष्य के लिए चिंतित व्यक्ति में, वे कहते थे कि जल्दी नहीं है कुछ देर ही सही पर स्वतंत्रता मिले तो सही अर्थों में उसे हम पायें...


और देश उन्हें मानने लगा, समय बीतने लगा.. वे आदर पाते राष्टीय उत्सवों में, नेताओं, अफसरों, राजभवनों में, थानों और कचहरियों में... गांधी की फोटो से तो किसी को इन्कार ही न था। गांधी के विचार गांधी के समर्थकों के निजी पुस्तकालयों में थे। देश के किसी भी नेता का गांधी की समाधि पर सिर झुकाने से हृदय परिवर्तन नहीं हुआ....देश एक दिन गांधी की याद करके उनके किये कामों का उपकार चुका देता। गांधी याद करने के हो गये... लोग गांधी को भूलने लगे....अब तो चुनावों के पोस्टरों में उनकी जगह न रही... यों कहें देश को विकास के रास्ते पर लाने के लिए चरखा कातते गांधी का क्या काम था? सस्ते चश्मे से देखते चरखे को, हाथों में खेत की उगाई रूई लिए धागे से पिण्डा बनाता आदमी अब बड़ी पार्टियों के महत्व का न रहा और गांधी बस खो गये लगते थे...


26 जनवरी को किसी न किसी झांकी में गांधी की जीवन्ता दिखाते उनके जैसे नाक-नक्श वाले आदमी को सरकारी विभाग के लोग अर्जी-फर्जी मेहताना देकर ले आते... उसे झांकी पर सभी को दिखाते...कभी-कभी कोई नेता जब देखता कि कैमरा उसकी अपनी ओर है तो वह उस नकली गांधी के प्रति वैसा ही प्यार दृष्टि प्रकाशित करते कि सारा देश धन्य धन्य हो जाता।

गांधी अब एक विचार हैं, भाव हैं, उर्जा हैं... वे प्रतिउत्तर जो नहीं देते... ? बस गांधी खो ही गये लगते...

देश अपनी राह पर चल पड़ा, उसे जो चाहिए था उसने समझौते किए, आश्वासन लिए, प्रगति के लिए अलिखित मानव मर्यादाओं की चढ़ती बली देख चुप रहे..., आर्थिक समझौते के लिए मान-अपमान सहा और वह पाने की दौड़ में शांमिल हो गया जिसमें उसकी अपनी कोई सोच, खुशी या लक्ष्य नहीं था। पश्चिमी संस्कृति के शारीरिक सुख और उसके साधन अपनी कीमतें वसूलने के लिए आ गये और भारत को अपनी आत्मा उसके बदले बेचनी पड़ी। सामग्री इतनी अधिक महत्वपूर्ण हो गई कि वह भूखे की भूख से अधिक जरूरी हो गई। नियम इतने अधिक महत्वपूर्ण हो गये कि न्याय होता है या अन्याय इसकी चिन्ता ही न रही। व्यापार इतना जरूरी हो गया कि कोई जिन्दा रहे या मर जाये परवाह नहीं...

तो ऐसे देश में होना ही क्या था, अपनी हर चीज बेचो और खरीद लाओ.... सामान, शान-शौकत, सुरक्षा, अपना निजी स्वर्ग। अब कुछ लाने के लिए जो बदले में कुछ तो देना था ? तुमने दिया... अपना ईमान, अपनी सच्चाई, अपनी देशभक्ति, अपनी आत्मा की शुद्धता, अपने चित्त की स्वच्छता...ये सारी चीजें जो तुम्हारे देश ने पिछले दस हजार सालों में कमाई थी तुमने मात्र एक सदी के मजे के लिए गवां दी...

पिछले कई सालों से एक आदमी अपना घर-बार छोड़कर एक मंदिर की सी जगह में रहता अपने को सम्हाले-संजोये सच्चाई के लिए लड़ता बूढ़ा हो जाता है। पीड़ितों के लिए, शोषितों के लिए, मजदूरों के लिए, वह सन्यासी जैसा जीवन बिताता है। अब उनके जीवन की सुनहली शांम होने को है। उन्होंने अपने जीवन को उन मूल्यों के अर्पित किया जिन मूल्यों के लिए गांधी ने अपने को देश के लिए समर्पित कर दिया था। अन्ना ने गांधी के आदर्शो को तो माना लेकिन अन्ना ने जो किया, वह अब अन्ना के ही आदर्श है। अब अन्ना तो खुद के आदर्श बन गये हैं।

इसलिए अब.... आप कहते हैं.. सारा देश कहता है, जो पक्ष में नहीं है वह भी और जो पक्ष में है वह भी कहता है कि अन्ना दूसरे गांधी है। मुझे लगता है कि जैसे गांधी प्रथम और अंतिम हैं वैसे ही अन्ना भी प्रथम और अंतिम हैं। अन्ना ने समाज के लिए अपने को समर्पित किया, यह साधना बिरले ही कर पाते हैं। समय जैसे-जैसे बीतेगा गांधी भगवान होते जायेंगे और अन्ना भी अब इसी रास्ते हैं...

देश सदैव भ्रांति में रहा कि वह, वह है जो शिखर पर है। पर देखें कि, यदि चेत जाये तो देश का प्रत्येक आदमी खुद शिखर हो सकता है और जब हर आदमी गौरीशंकर हो जाये तो फिर यह भ्रष्टाचार और यह सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन से बच नहीं सकती...

इसलिए कहता हूं कि मैं अन्ना नहीं

मैं आगत हूं... कुछ और नई संभावनाओं से भरा...

तुम........... तुम हो कुछ और नई संभावनाओं से भरे...

3 comments:

  1. गंभीर वैचारिकता. पृष्‍ठभूमि का रंग सादा रखने पर विचार करें, अत्‍यधिक धैर्य और दबाव के साथ पढ़ा जाना संभव हो रहा है फिलहाल तो.

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  2. मैं अन्ना बिलकुल नहीं हूँ। वरना इस पर जम के अन्नाबाजी करता। यहीं अनशन शुरु कर देता। अन्ना का चेहरा गाँधी का कम अनशनकर्ता का अधिक हो रहा है अब।

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