Friday, 5 August 2011

लौहपथगामिनी

रेल से यात्रा एक सुखद अहसास है। हम अपने जीवन में इतनी तेजी से भागते जाते हैं कि छोटे-छोटे अहसास लगभग चूक ही जाते हैं और जिन्दगी एक सुहाने सफर की कथा बनने से विपरीत, समय काटने और बोझ से लदे आदमी की आकृति गढ़ने लगती है। जिन्दगी के ठहरने का अहसास हो तो गति का आनंद कुछ और ही है। यह चैतन्य हाथ से छूटा जाता है। एक अजीब सी उदासी दीखने लगी है।

बचपन की याद... कि रेलगाड़ी से कहीं जाना हो तो धोबी पहिले याद आता, बढिया प्रेस किये कपड़े, नकली चमड़े का चमकीला बैग और उसमें ऐसा सामान कि कहीं रेल एकाध महिने अटक जाये तो परेशानी न हो, इसकी तैयारी के साथ ही मुहल्ले के नये बलशाली युवा, अपने दिवस की इतिश्री, रेल तक बिठाने के धर्म निबाहते, को समर्पित कर देते। बड़ा सामान उठाकर ले जाना  शारीरिक  शक्ति को दर्शाता, रेल आने पर युक्तीपूर्वक भीड़ में घुसकर सीट ले लेना बु़िद्ध की चातुर्यता की सार्मथ्य को दर्शाता और इसमें सफल प्रतिभागी के भविष्य की उज्जवल आशा निश्चित कर ली मानी जाती। लोग दबी जबान से कह देते लड़का अच्छा है...

यात्रा के लिए पुराने या बासी कपड़े पहिनना समझदारी, इन्जन से सबसे पिछले डिब्बे में बैठना बुद्धिमानी और दूसरे के खरीदे गये अखबार, आपने तक आने की प्रतिक्षा शालीनता मानी जाती। चलती रेल में दरवाजे से लटकर आगे देखना चंचलता और मूर्खतापूर्ण बहादुरी, चुप रहकर प्रकृति के दृश्य एकटक देखते रहना और सामने बैठी किशोरी को न देखना अभिजत्य गर्व माना जाता। किशोरी के पिता से परिचय बढ़ाना संदेह को जन्म देता और थोड़ी सी भी चूक पिटने का सबब मानी जाती।

रेल में जाने की बात ही जैसे शरीर की धौकिनी को और अधिक तेज करता, जाने वाले उत्साही होते और विदा करने वाले अपने को भविष्य के यात्री के रूप में देखते..लम्बी उसांसें भरते...। भीड़ कम है तो टिकिट कटाना जरूरी और अधिक है तो गैर जरूरी माना जाता। लोग टिकिट कटाने की बाद, कुछ खुल्ले पैसे साथ लेना नहीं भूलते। अब रेलगाड़ी चल पड़ती... छुक....छुक..  धटर...धटर... समय की टिक-टिक, रेल की पटरियों की घटर-घटर में बदल जाती यहां समय रेल की गति से बंध जाता। मूंगफली, चने, ककड़ी, बेर, तेंदू, भिलमा, आम की खुशबू नथुने में भरने लगती। खाने के सामान का धन्धा करने वाले लोग पसीने से लथपथ टोकरियों को अपनी सहूलियत से कुछ ऐसे गले में लटकाते, एक डिब्बे से बाहर की ओर लटकाते हुए दूसरे डिब्बे तक सामग्री की सर्कसनुमा आवक-जावक, हवा, गति और भार के सूत्र का समन्वय और उसकी सटीकता, जीवन के आरंभ और अन्त की रेखा के बीच दिखाती। इतनी मुश्किल से यह चटपटा स्वाद, खाने का सामान ले आने वाला.. एक हीरो की तरह डिब्बे में आता और लोग अनकही मर्यादा को निबाहते खुल्ले पैसे पहिले ही हाथ में ले बजाते हुए अपने को अच्छा ग्राहक होना परोसते, चना चबाने से उठी गन्ध ज्यों ही डिब्बे मैं फैलती, लोग जेब टटोलने लगते, बच्चे पिता की आंखों में पैसे झाकते दीखते, यदि थोड़ी देर होती... तो मां के हाथ, साड़ी के छुड़डे में बंधी छोटी सी गठरी की गांठ बरबस ही खोलने लगते और गोद में बैठे, बेटे की आखों की बुझी चमक फिर लौट आती।

जंक्शन से जंक्शन जाती रेलगाड़ी संगीत से गूंजने लगती, अंधा आदमी अपने से आधी उम्र की स्त्री के सहारे डिब्बे में चढ़ता, खुद जीवन के व्यर्थथा का दृश्य दिखाता, कबीर के भजनों में जीवन की नश्वरता के गीत गाता, हाथ फैलाकार पाये सिक्कों में, संसार को बटोरता चलता। यहां संसार की कथनी और करनी के अलगाव में असत्य ठहाका मारता दिखता.....

आगे के स्टेशन से एक महिला दयाद्र्र चेहरे को ओढ़े... आते दीखती। मिन्नतें करती, भीख मांगती, मिलने पर आशीष और न देने पर बददुआयें देती, बाजू की सीट पर बैठा आदमी बताता है कि इसके पांच बेटे हैं सभी सरकारी अधिकारी हैं लेकिन इसे तो बचपन से भीख मांगने की आदत है। मुझे लगा कि नहीं... इसे तो एक्टिंग की आदत है। यह सफल अदाकारा है।

जिनमें प्रदर्शकारी कलाओं, गायन या नाट्य रूप की प्रतिभा नहीं होती वे वे कागज का सहारा लेते हैं। तो अगले स्टेशन पर मुंह लटकाये बगल में दुधमुहा बच्चा लिए महिला दीखती है हाथों में पम्पलेट्, पम्पलेट पर अर्थहीन शब्द,  भीख मांगते शब्द, शब्द, शब्द... पढ़ने वाले आदमी को उसकी अपनी औकात सोचने विवश करते हैं। आदमी जानता है वह बेवकूफ बन रहा है लेकिन अंदर औकात पर चोट, अहंकार को हिलाती, बरबस ही आदमी अपने जेब में हाथ डाल देता है रूपये निकालने...। रूपये का रंग, अधिकार पैदा करने करने लगता है लेने वाले के आंखों के यौवन की छटा की एक झलक के लिए...

जातिगत परम्परा जिन्दगी की खोज और बोझ के बीच, हाथों में ढोलक बजाते, अपने पैदा किये तीन-चार साल के बच्चों को स्टील के सख्त छल्लों के बीच से उमड़ घुमड़ कर निकल आने की कला दिखाते, पैसे बटोरने की कोशिश करती पूरे डिब्बे को ध्वनि प्रदूषण से भर देती है। यह सुलझने-उलझने की कला का देसी सर्कस आखों से गुजरता सीने में कड़वी हूक भरता है। लोग इसलिए पैसे देते है कि यह खत्म हो और बन्द हो.. जल्दी से...

और यह गायक जो जब भी आता है पता नहीं गाता क्या है ? न गीत है, न स्वर है, पता नहीं क्या है ?  यह तो उसे ही पता है जो गा रहा है.. बस यात्री सुन पाते हैं। एक आंख पूरी चमड़ी से ढ़की है और दूसरी आंख खुली है। लोग कई सालों से समझ नहीं पाये है कि यह अंधा है या नहीं, इसे इस एक आंख से दिखता है या नहीं ? खोज आज भी जारी है। पता चलता है कि महोदय तीन मंजिला मकान और तीन बीबियों के मालिक है, तीसरी बीबी अभी-अभी नयी आई है जो मात्र 16 की है। रोज निकलते हैं और शाम को वापस आते हैं तो बिना मुर्गा के खाना नहीं खाते...बस गाते हैं और खाते हैं, अपना जिस्म दिखाते.. पैसे बटोरते हैं जब पैसे अधिक हो जाते हैं तब नया जिस्म अपने लिए बटोर लाते हैं...


डिग...डिग...डिग..ढुढ़क...ढुढ़क..ढुक की आवाज हाथ में ढुक-ढुकी बजाते लड़का है;  बाल.. अभी भी 70 के दशक के डिस्कोनुमा हीरो.., काला रंग,  रफी के गीता गा रहा है ...पता नहीं उसका अपना प्रेम है जो टूट गया है या वह दूसरों के टूटे प्रेम को अपने रोजगार के जरिये सांत्वना दे रहा है। रफी के दर्दीले गीत, ओ मेरी महुआ...परदेसी जाना नहीं...गाता हुआ लोगों के चेहरों को पढ़ने की कोशिश करता है। बीच-बीच में मोबाईल के गानों की रिंगटोन के बजते ही उसके चेहरे की निराशा बढ़ने लगती । हतोत्साहित होता, अपने रोजगार की चिन्ता,  गला रूंध जाता है, गीत बीच में ही छूट जाता है...। मोबाईलर के पास जाकर सिक्के मांगने की हिम्मत नहीं होती उसकी कला हाशिये पर अब जो है...

व्यवस्था को लम्बा कोसने के बाद.... लोग अब बोर होने लगे...लोग अपने दादा जी को याद करते... कि उन्होंने अपने जीवन में कभी बिना टिकिट यात्रा नहीं की, और तो और मूंगफली, केले, चना और पान की पीक डिब्बे से हमेशा बाहर ही फेंके। जब 1933 में अकाल पड़ा तो हजारों लोग काम में लगे थे। दादा जी और परिवार को अंगे्रजो ने गंेहू-चावल दे कर इस रेल के मार्ग को बनवाया था। इस रेलपथ पर कहां.. भूत-प्रेत दीखते और कहां फकीर मुश्किल में आने वाले की मदद करते..। कैसे किसकी जेब कटी और कब किसने गलत रेल पकड़ी। कैसे..कैसे बे टिकट यात्रा की और कैसे राजनीतिक यात्रा में भीड़ की मनमानी के अधिकार का उपयोग किया। टी. सी. ने कितने पैसे लेकर छोड़ा और रसीद नहीं काटी...कैसे दूर-दराज के जंगल कटे और बाजारों में बिके...कैसे सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग आये...और हैं...

रेल की यात्रा और जीवन की यात्रा की एकरूपता यहीं दीखती है। अपने पूरे जीवन की यात्रा का मूल स्वभाव बस एक रेल यात्रा में जाना जा सकता है। हम यात्रा की तैयारी कैसे करते हैं, यात्रा में क्या-क्या करते हैं, जिस सीट को अपने अधिकार में रखने की जद्वोजहद, अधिकारिता, उस यात्रा के एक-एक क्षण, एक एक व्यवहार और अन्र्तमर्न और बर्हिमन की उपजी सोच का विस्तार करते हैं और अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर पहुंचकर अपनी सीट और रेल को छोड़कर... ऐसे भागते है कि वह हमारी थी ही नहीं.. कभी। न छूटने की पीड़ा होती है और न अधिकार जताने के लिए हम वापस लौटते हैं। यह जो न लौटना है, बस इसी क्षण में जीवन और मृत्यू के बोध का राज छिपा है यदि ठहर जायें तो मोक्ष, मुक्ति, अमरत्व, शिवत्व, बुद्धत्व और हां यदि अगली यात्रा की कामना है तो पुनः पुनः संसार...

13 comments:

  1. आकल्प भाई,
    रेल यात्रा के समस्त पहलुओं का उल्लेख करता समग्र आलेख है।
    बहुत ही सुंदर ढंग से आपने विवेचना की है। आभार

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  2. Is lekh ka Bhaag 2 bhi ban sakta hai. rail me saath karne waale sahyaatri bhi ek se ek zordaar hote hain. saath hi alag alag stations par utar kar aanand lena. Yah bhi rail yaatra ka hissa hain. doosare baag ko bhi jam kar likho.Maza aayega, ye to khair nishchit hi achchha hai.

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  3. गाड़ी पटरी पर तो आ ही रही है, गति भी मिलने लगी है. फ्रीक्‍वेंसी को समर/फेस्टिवल स्‍पेशल से अधिक रखने का प्रयास करें. वैसे जानदार, शानदार पोस्‍ट बनी है.

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  4. पहले दो पैरा से लगता है कि अब जनाब रेल पर नहीं चढ़ते।

    जैसे छोटे थे तब सब कुछ बड़ा और अलग लेकिन अब तो…

    जगजीत सिंह की कागज की कश्ती याद आ रही है आपकी बात से

    बचपन में हम स्टेशन के चापा कल पर नहाते थे। क्योंकि स्टेशन सामने है, बहुत दिखता नजदीक है। मतल्ब 5-6 साल के होंगे तब, ट्रेन था कोयले वाला, छुक-छुक वाला। चलता था थो धरती हिलती थी। और डर भी लगता था।

    आज भी जब कोई रिश्तेदार छोटा बच्चा आता है, वह खिड़की से ट्रेन दिखकर खुश होता है और छोटा बच्चा चुप भी हो जाता है कई बार देखकर।

    अब तो लगता है कि आलू के बोरे में कस के जा रहे हैं।

    "बच्चे पिता की आंखों में पैसे झाकते दीखते" "एक महिला दयाद्र्र चेहरे को ओढ़े..... न देने पर बददुआयें देती" " बीच-बीच में मोबाईल के गानों की रिंगटोन के बजते ही उसके चेहरे की निराशा बढ़ने लगती । ", मोबाइल कैसे उस दौर में? देख लिया।
    बद्दुआ देते नहीं देखा कभी इस तरह ट्रेन में।

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  5. रेल यात्रा हमेशा से ही मेरे लिये आकर्षण का केन्द्र रही है। गर्मियों की छुट्टियों में परिवार के साथ जाने आने के न जाने कितनी यादें हैं जो नॉस्टाल्जिया की गठरी बांधे हुए हैं। बहुत रोचक अंदाज में लिखा गया लेख है।

    राहुल जी का आभार जो उन्होंने इतने अच्छे लेख का लिंक दिया।

    @ यात्रा के लिए पुराने या बासी कपड़े पहिनना समझदारी, इन्जन से सबसे पिछले डिब्बे में बैठना बुद्धिमानी और दूसरे के खरीदे गये अखबार, आपने तक आने की प्रतिक्षा शालीनता मानी जाती। चलती रेल में दरवाजे से लटकर आगे देखना चंचलता और मूर्खतापूर्ण बहादुरी, चुप रहकर प्रकृति के दृश्य एकटक देखते रहना और सामने बैठी किशोरी को न देखना अभिजत्य गर्व माना जाता।

    बहुत सटीक ऑब्जर्वेशन।

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  6. सुंदर संस्मरणात्मक लेख।
    कोलकाता के लोकल में बहुत कुछ वैसा ही है जैसा पहले था। केवल कोयला वाला इंजन नहीं है।
    यहां के लोकल की एक विशेषता है कि भीड़ बहुत होती है और उस भीड़ में लोकल डेली पैसेन्जर चार जने खड़े-खड़े ब्रिज (ताश का खेल) खेल रहे होते हैं।

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  7. रेल यात्रा में ये दृश्‍य पिछले तीस चालीस सालों से हम देखते आ रहे हैं। और शायद जब तक रेल होगी और आजीविका की मारामारी यह चलता ही रहेगा। लेख देखकर ऐसा लगा जैसे आपने किसी लंबी कहानी के लिए नोट्स लिए हैं। बहरहाल अच्‍छा लगा पढ़कर।

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  8. आपके ब्‍लाग की लिंक राहुलसिंह जी ने दी है। पर आपकी स्‍वयं के बारे में इतनी गोपनीयता बरतने का कारण समझ नहीं आया। नाम भी ब्‍लाग के लिए बनाया गया लगता है और ब्‍लागर प्रोफाइल से भी कुछ पता नहीं चलता। जानने की इच्‍छा है।

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  9. हमे राहुल जी लिंक देना भूल गये थे पर हम भी आपकी यात्रा का मजा लेने आ ही पहुंचे। बहुत ही अच्छा बर्णन है पुराने दिनो की याद आ गयी।

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  10. यात्रा के पहले उत्साह, यात्रा के दौरान होने वाली घटित चित्रों को बहुत अच्छे से उकेरा है।

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  11. आपकी इच्छा को सम्मान...
    ‘ये जो कुछ पता नहीं चलता’ सभी को आकर्षित करता है-
    मुट्ठी खोलता हूं और खाक हो जाता हूं...
    नाम और परिचय लिख दिया है और बाकी फेस बुक में Agat shukla नाम से भी देख पायेंगे
    आपकी और मेरा ढे़र सारा अपनापन......

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  12. हिन्दी की बहुत गलती हो गई है मुझसे!

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  13. मिश्र जी,..तो क्या हुआ ?
    लेकिन जब रेल गलती करती है तो...

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