Tuesday 12 July 2011

नगरनार- मिट्टी कला ग्राम / बस्तर की पांरंपरिक शिल्प कला


  नगरनार मिट्टी शिल्प-एक कला ग्राम

बस्तर की पांरंपरिक शिल्प कला
आगत की बस्तर पर दृष्टि-एक
Agat View on Bastar-1

बस्तर की पांरपरिक शिल्प कलाओं को पुरातन समय से बार-बार प्रतिध्वनित करता यह गावं, नदी के किनारे अलसाया सा पढ़ा रहता है। नदी के साथ रोज सृजन का रिश्ता, हर सूरज उगने के साथ ही सार्थक अगुलियों से आदमी के आत्मतत्व की मिट्टी, नदी की मिट्टी से सृजन करती, रोज अपने को नये रूप में पसार देती है। नदी के इन किनारे ने कुम्हारों को बाध्य किया यहीं बस कर रह जाने के लिए,  नगरनार के आस-पास की मिट्टी के अनेक प्रकार मिल जाते हैं। मिट्टी की यह अलग-अलग प्रकृति इस सृजन स्थल को खुद ही चुनती है।
 नगरनार में कुम्हारों के लगभग 50 परिवार हैं जो सदियों से दैनिक उपयोग की सामग्री, शिल्प, अनुष्ठान सामग्री बनाते आये हैं। लोक विनिमय प्रथा के चलते तो पूर्व में केवल उदर पोषण पूरा करते हुए अल्प कामनाओं के चलते यहां समय ठहरा हुआ सा जान पढ़ता है। बहुत समय से मानो कुछ बदला ही न हो। बस बदला तो रोज ही उंगलियों से बहता सृजन,

 नगरनार ने जहां कला के अनेक मूल्य सहेजकर रखे, शिल्प के पारंपरिक आकार को स्मृतियों में सहेजे रखा, और नवीन रूपाकारों से भी परहेज नहीं किया। अपने परिवेश को शिल्पांश्रम की मर्यादाओं से सर्देव आरक्षित और पोषित किया। अपनी विरासत को अपनी पीढ़ियों तक निरंतर जारी रखने का महती काम किया, और इस कठिनतर जीवन शौली से कभी भी परहेज नहीं किया। नगरनार ने समाज और संसार को अपनी ओर से भरसक देने की कोशिश की। और आज नगरनार शैली पूरे देश की बची-खुची ‘ौलियों में से एक है जो अपने अस्तित्व को बचाने की अंतिम कगार पर खड़ी हैं। 

देश में कला परोपकारी सामाजिक, सांस्कृतिक, राज्यों की शासकीय, देश की केन्द्रीय संस्थाओं, ने अपने-मानदण्डों से जो भी यहां किया उसके कुछ भी सूत्र यहां नहीं दिखते हैं। एक कला ग्राम को कैसे संरक्षित किया जाये इसके लिए पूरे देश में संगठनों, संस्थानों की भरमार है। लेकिन बजट बनाने पर लोगों के नगरनार पहुंचने का खर्चा अधिक और उस कलाकार के जेब और पेट में पहुंची सहायता का धन इतना कम है। कि कहते हुए शार्म आती है।

कलाकारों की हालत तो यह है कि चक्र बनाने के लिए, मिट्टी लाने के लिए, शिल्प पकाने के लिए पैसों का अभाव रहता है। और यदि शिल्प बन जाये तो उसकी विक्रय समस्या सामने होती है।

देश में शिल्प को बाजार तक पहुंचाने के लिए अनेक एन.जी.ओ., राज्य और केन्द्र की अनेक योजनायें हैं। योजनायें आकाशीय मार्ग से आने वालों के वश में होती हैं। लोग दिल्ली से प्लेन से आते, 3स्टार होटल में ठहरते, रायपुर से ए.सी. कार लेकर जगदलपुर में ठहर कर रात्रि विश्राम कर प्रातः नगरनार पहुंचकर सुबह के सूरज की रोशनी में चमकदार शिल्पों और धुंऐ से काले होते बूढ़े शिल्पियों की आंखों, गालों के गढ़ढे, हाथों की धिस चुकी लकीरें जो चेहरे पर छप गई हैं उनके कलात्मक फोटो संकलित कर, अपने अफसरी पहनावे, शब्दों के बंधाये आसरे, विकास की झूठी चमक चमकाते, अपने साथ के आदमियों की आंखों में इशारा करते कि इन्हें मैनेज कर लेना। चले जाते....फिर लौटकर नहीं आते...

 बच्चे कार को धुएं उड़ाते आते देखते और धूल उड़ाते जाते दीखते-दीखते जवान होते जाते, पिता की पारंपरिकता अब उन्हें रास नहीं आती है। छोटी सी जमीन जो शिल्पों के लिए अधिक थी अब नगरनार के प्लांट लग जाने से जमीन की कीमत और उसके एवज में सरकारी नौकरी मिलना नवजीवतों के लिए ज्यादा लाभप्रद लगता है।

अब जो नगरनार के पुराने आलेखों, बोशरों, या सूचनाओं के आधार पर जो भी योजनायें बनायी जा रही हैं उनका उपयोग अब सार्थक होने की संभावना नहीं हैं। नगरनार की कला परिवेश तब जीवित रहता जब कला, परम्परा से आगे विरासत के रूप में आगे बढ़ती। यह नहीं हो सका। और अब बस नगरनार की कला ग्राम की पहचान असली से नकली होने की है।

पूरे देश में कला, शिल्प, सांस्कृतिक संस्थाओं, सहयोगी संस्थाओं ने कलाकारों के लिए विभिन्न योजनाओं के लिए एक सूत्र दिया था और बहुत सारा पैसा इस पर खर्च भी किया। विचार था कि सारी पारंपरिक कला परंपरा को दस्तावेजीकरण कर लिया जाये। 1980 से 2000 तक ऐसे कलाकार समुदाय को ध्यान में रखकर पैसा खर्च हुआ कि हमारी शोष विरासत अब इन 60 साल से 80 साल के कलाकारों के पास संरक्षित है। सो इनका समग्र संकलन किया जाये। यह कहते-कहते वे समय काटते रहे। यह कहने वाले अफसर आदि अब तक रिटायर हो चुके हैं। तो उस समय के बाबू महोदयों ने एक अजब तरीका ढूंढा है और वह यह है कि कलाओं में नवीन नवाचार नवआकार नवउपयोगिता अनुसंधान करते हुए कलाकारों के बाजारों को उन्नत किया जाये।

एक समय तो यह भी हुआ कि देश की सारी कलाओं को एक स्थान पर लेकर आया जाये। कलाकार एक दूसरे के कला आयामों का अध्ययन करें। एक दूसरे से सीखें और अपने गांव लौट कर उस विधि से काम करें। इन आयोजनों ने शिल्प कला की अपनी निजी स्थानिकता को गम्भीर नुकसान पहुंचाया। शिल्पी अपनी पारंपरिक विरासत को छोड़ बाजारवाद के अंधेरे गलियारे में भटकने को मजबूर हुए।

दरअसल ये सारे विचार, ये सारी योजनायें कलाकार, कलाविशेषज्ञों, ग्रामीण कला पारखियों की नहीं थी। ये योजनायें तथाकथित पिछले दरवाजे से नौकरी ढूंढकर आने वाले, टाईपिस्ट की पोस्ट पर आते हुए मैनेज कर अफसर की बगल में जाकर अभिनव योजना बताने वालों और रिटायरमेंट तक या जब तक नौकरी करना हो तब तक के लिए सांस्कृतिक व्यक्ति का आडंबर ओड़े व्यक्तियों का काम-कौशल था। ये सभी हिन्दी साहित्य के पढ़े लोग थे जिन्हें सीधे-साधे गांवों के कलाकारों के समूह को नियंत्रित करना मुश्किल न था।
कलाकारों ने इन सब अडम्बरवान लोगों के शब्दविलास से आकर्षित होकर इन पर विश्वास किया और परिणति में देश की कलाओं, और कला की पारंपरिक विरासत की प्रथा अब अपने अंत की कगार पर खड़ी है।

शिल्प उन्नयन संस्थाओं ने तो शिल्पियों के शिल्प के जो मानदंड स्थापित किए वे इतने विदेशी है कि देखकर दुख होता है। अब शिल्प संस्थाओं में शिल्प के नवाचार के नाम पर शिल्प के कारखाने खोलने का परिवेश दीखता है। एकाकी सृजन और परम्परागत शिल्पों, स्थानिकता के रूपांकनों को त्यागते हुए। अनेक तरह के नवाचार हुए हैं जिनके कारण पारंपरिक कलाकार बेरोजगार है।

 जो शिल्प बाजार में चलता है उसकी डाइ बन जाती है और उसे बाजार की मांग विक्रय के अनुसार हजारों की तादात में बनाया जाता है और आकार की एकता रखी जाती है। इस तरह कलाकार के हाथों का प्रथम शिल्प जो आकर्षित करता है उसे लेकर उस कलाकार को उसका इतनी संख्या में बनाये जाने का कोई लाभ नहीं मिलता। उसे कहा जाता है कि जो प्रशिक्षक कह रहा है वह करो। जो तुम्हारी कला है उसे घर पर ही छोड़कर आओ। इस तरह वह कलाकार न होकर एक मजदूर की हैसियत का हो जाता है। साथ ही कहा जाता है कि बच्चों को भी हम रोजगार देंगे बच्चे जब प्रशिक्षक के पास जाते हैं तो वह उन्हें वह शिल्प बनाने की ट्रेनिंग देता है जो पूरे देश में एक ही तरह का दिखता है। इस तरह कला की मूल आत्मा मार दी जाती है।

जिस हाथी को देखते ही हम गणेश की याद करके हल्दी का टीका लगाते दूब चढ़ाते शुभ काम के होने की आशा करते। उस हाथी के शिल्प को ऐश ट्रे में परिवर्तित कर निर्मित करते हैं। जिसका उपयोग ऐश टेª में सिगरेट के ठूंठ कुचलते होता है। कला का बेहुदा निर्माण और उसके हिस्से से कला का लगातार अपमान हमें पता नहीं शिल्पों की किस दुनिया में हमें ले जायेगा, जहां हम अपने देश संस्कृति का पर गर्व करेंगे या सहेंगे अपमान ?

इतने कर्मचारियों, अफसरों, बुद्धिजीवियों, नेताओं, संगठनों, संस्थाओं, राज्य सरकारों, केन्द्र सरकारों ने इतनी योजनायें बनाई, इतना पैसा खर्चा दिखाया, इतने उपयोगिता प्रमाण पत्र बनाये, इतनी नोटशीटें लिखी, इतनी जरूरतें दिखाई, इतने लेख लिखे, इतने सम्मान प्राप्त किये, पर नगरनार के शिल्प और उसके पारंपरिक शिल्पियों को को क्या मिला, उनका वर्तमान इतना वीभत्स है भविष्य क्या होगा ?
क्या इस विचार पर भी एक नये बजट की संभावना है ???
यह मजाक कब बन्द होगा???
हम हाशिये पर बैठे कला प्रेमी प्रतीक्षारत हैं.....
क्रमशः

2 comments:

  1. Desh ki saari lok kalaaon kii kam aur zyada yahi sthiti ho rahi hai khaas kar door daraaz ke anchalon me basi kalaon aur kalakaaron ki. Koi dhyaan dne wala nahi hai. Bazaarwaad pata nahi inke kaam kyon nahi aataa hai.

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  2. शिल्पकारों की बदहाली को सभी लोग जानते तो हैं लेकिन उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। नतीजतन बिचौलिये लाभ उठाते हैं।

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