Sunday, 21 April 2013

बेटी पिता धर्म देश कानून न्याय

ब्लॉ.आगत शुक्ल, रविवार, 21 अप्रैल 2013

कहते है कि फल से पता चलता है कि कौन सा, कैसा बीज किस जमीन पर बोया, उसे किस तरह का हवा पानी मिला, कैसी खाद मिली और उसकी परवरिश किस तरह के माली ने की, पौधे के बीज से जन्मते ही उसके आसपास के लोगों ने उसे क्या सिखाया, उसके जीवन में किस लक्ष्य को लक्षित किया अब जब पौधे आकाश छूने लगे हमारे हाथ की हद से बाहर चले गये, और वे फल भी देने लगे तब हम हाय-हाय कर रहे हैं।

समाज के अग्रिम पक्ति के लोग जो रास्ता दिखाने का काम करते थे उन्होंने अपनी जिम्मेवारी ठीक से नहीं निबाही है। देश के शीर्ष पदों पर बैठे लोग, जो कार्यवाही करने के लिए पदासीन है, व्यवस्था हैं, वे उपदेश की भाषा बोलने लगते हैं। जनता हतप्रभ और किंकर्तव्यविमूढ़ होकर बारी बारी से अहिंसा के भोथरे हो चुके उपादानों को बार-बार प्रयोग करती है और वे सारी कोशिशें लक्ष्य को बेध नहीं पातीं। जमीनी व्यवस्थायें बार-बार अपने नियम कायदों के पुरानेपन, भारीपन और मौजूदा समय में अपने आप को पलायन करने की भावचेष्टायें करने में परिश्रम करती नजर आती हैं।

यह सब... तब तक चलता है जब तक मीडिया को लगता है कि इस खबर से उपजी संवेदना के पीछे-पीछे वह पश्चिम संस्कृति के विविध उत्पादों... जिनसे भारतीय संस्कृति में शान्ति के विविध मूल्यों को नष्ट करने वाले बाजारों को... इस देश के व्यक्तियों के स्मृति कोष में दर्ज कर सकता है। इस विचार को भुनाता रहता है। इस उपजे हुए आकस्मिक और भयावह डर की स्थिति में जब आदमी की चेतना अपने को व्यक्त करने के लिए अपने द्वार खोलती है तब विचार के आने-जाने के इन इन खुले रास्तों पर पश्चिम की संस्कृति और अधिकतम भौतिकता के बीज हमारे भीतर रोपे जाने लगते हैं। जब स्वतंत्रता के शब्द दिमाग में हिलोरें मारने लगते हैं, अभिनेता अपने प्रोजेक्टों के लिए योजनायें बनाने लगते हैं। सुरक्षा संस्थान नये बजट बनाने लगते हैं। सुरक्षा कम्पनियां अपने उत्पाद बाजार में उतारने लगती है।

नियंत्रण का मूल जो हमारे ‘स्व’ में है, परमात्मा के प्रति विश्वास में है और जो मानव का मानव के प्रति प्रेम में है इन भावों पर आश्रय डिग जाता है और हम परिवर्तन की इच्छा और इससे जनित व्यक्त किए जाने वाले त्वरित प्रतिक्रिया को हम राष्ट्र प्रेम, कर्तव्य, धर्म मानने लग जाते हैं इस तरह धैर्य और आत्मनियंत्रण जो देश का मूल है और यही जो खो गया है। जब जिसका ज्यादा ही चुक जाता है तब चूक जाता है।

यह जो व्यक्त करने की कोशिश है वह आक्रोश है यह तो बस उर्जा है। यह आदमी के अपने सिक्के के ही दो पहलू  हैं , पहिले हम धार्मिक और संस्कारित  होकर इस को स्थानांतरित कर लेते थे परिवर्तित कर लेते थे तो समाज में व्याभिचार की ओर उर्जा नहीं जाती थी और समाज में चीत्कार, बलात्कार, वैध भ्रष्टाचार, छद्म शिष्टाचार, मुखौटाचार की प्रतिष्ठा क्षीर्ण हो जाती थी।

भारत में सदैव इस पर विचार किया गया कि पात्र और अपात्र, व्यापार.. याने कैसे ले और कैसे दैं, कैसे अर्जित करें और कैसे दान करें। इसकी एक अलिखित और अनकही मर्यादा से समाज बना था दुःख है कि इनकी ओर  आधुनिक समाज का रूझान समाप्त हो चला है।

मुझे लगता है पश्चिम और कबीलाईयों के विचार कि 'जिसकी लाठी उसकी भैस' वाली कहावत को आदमी ने नीति वाक्य बना लिया है। एक तरफ वह तबका है जो वैध तरीके से अनैतिक धन और शक्ति अर्जन करता है और दूसरा तबका वह बन गया है जो बस टुकुर टुकुर देखता रहता है और जिसके मन में यह बात पैठ गई है कि यह सब उसके बस का नहीं...यह जो खाई है। यह जो मन में पल रहा आक्रोष है यह आदमी के धीरज को खो जाने की स्थिति में उसे पशुओं के जैसे हिंसात्मक विचारों से झंकृत करता रहता है।

आक्रोश सदैव सौन्दर्य को, श्रेष्ठत्व को, पवित्रता को, मूल आधार को, संवेदना को और कोमलता को नष्ट करने के प्रति उत्साहित होता है और यह परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति जिसमें सभी गुणों का समावेश हैं स्त्री तत्व, जो आसपास हर जगह मौजूद है। प्रत्येक पुरूष प्रकृति को इसी स्त्री तत्व के प्रति अपनी पशुहिंसा स्खलित करने का तर्क आदिम अवचेतन में संग्रहित विचार व्यवस्था से मिल जाता है। देश में पैदा होते ही उर्जा पर नियंत्रण सिखाने वाली व्यवस्था को हमने रूढ़ी माना और उस व्यवस्था को बिसार दिया और उसका दण्ड अब सामने हैं।

आज दृश्य यह है कि जो पशु जंगल में रहते थे उनमें से बहुत सारे जानवरों ने अपना आश्रय आदमी के बसाये नये-पुराने शहरों गांवांे में बनाया। आदमी की इस मनोरंजनात्मक कामवासना की तरंगें उन्हें इतना संवेदित करती रहीं कि वे भी अपना प्रणय अथवा मिलन के समय और स्थान को नियंत्रित नहीं कर पाये। जानवरों की बीजारोपण की व्यवस्था को अब नवीन मानव बस्तियों में जन्म लेने बालक सीखने लगे हैं अपनाने लगे हैं। स्वतंत्रता के विचार को... जानवरों की स्वतंत्रता जैसी महसूस कर सकने की कोशिश में आदमी ने.. अब जानवरों की प्रकृति को अपनी संस्कृति मान लिया है और अब देश कलंकित  है।

इस देश का इतिहास है कि जब द्रोपदी का अपमान हुआ तो महाभारत हुआ और दुर्योधन को अपने भाईयों की मृत्यू के रूप में सौ बार मरना पड़ा,  जब रावण ने सीता हरी तो उसका एक बार नहीं दस-दस बार सिर काटा गया तब भी राम जी का मन नहीं भरा। अब जब देश में इतना चिन्तन, इतनी वैज्ञानिक उपलब्धियां, इतना टीम-टाम, साजोसामान, इतनी व्यवस्था, इतना भविष्य, विकास, विस्तार और इतना तेज आना-जाना और प्रचार, इतनी राजनैतिक जिम्मेदारी, इतना इतना नैतिक शिष्टाचार, इतना व्यापार इतनी जल्दी समाचार, इतने विचार हैं।


इस देश को आज भी उस आदमी की जरूरत है जो समाज के लिए अपने घर से निकले...
उसके हाथ में लाठी और आधी धोती हो,

लेकिन बहुत सारी जेबों वाला कुरता हरगिज न हो....

1 comment:

  1. आपने सर्वथा उचित लिखा है.आज के परिवेश में आवश्यकता है,अपने सांस्कृतिक मूल्यों को पुनर्जीवित करने की,इसके लिए हम जिस कानून का सहारा लेतें हैं वह वस्तुत:देशिक न होकर वैश्विक प्रतिस्पर्धा में खुद के अस्तित्व को कायम रखने के लिए आयोजन है.इस प्रायोजित आयोजन में.वह तभी संभव प्रतीत होगा जब हम अपने अतीत को पुर्जिवित कर सकने में सक्षम होंगे.स्थापित जीवन मूल्यों में मानवीयता का विकाश करेंगे. जो इस भूभाग की थाती है यह तभी संभव है जब हममें आत्मपरिक्षण का सातत्य अविरल,निर्वाध गति से बहे,

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