Friday 22 July 2011

नगरनार- दृश्यांकन देशाटन

आगत की बस्तर पर दृष्टि
Agat View on Bastar
नगरनार  दो :1991 

भतरा मोनोग्राफ के श्वेत-श्याम तथा रंगीन दृश्यों के लिए भोपाल से एक फोटोग्राफर को लेकर जाना था। हम रेलगाड़ी से रायपुर पहुंचे और बस से जगदलपुर में जाकर ठहरे। सुबह तय हुआ कि बढ़िया नाश्ता करें, फिर चलें। हमने रास्ते के ठेले से, जहां बहुत से लोग छोले-पुरी का मजा उठा रहे थे.. हमने भी नाश्ता किया और बचत के इरादे से एक मेटाडोर में बैठकर चल दिये। रास्ते में दिखा.. बरगद का विशाल वृक्ष जो अपने नीचे कुछ चढ़ाये गये हाथी, घोड़े, शिल्पों, लाल, सफेद, पीले धागों से बांधे लोगों के संस्कार, आस्था और विश्वास को ढ़ाढ़स बंधाता.. अपने भी बचे रहने की आंस संजोये, एक ठन्डी सी मिट्टी की खुशबू के झोंके से हमारा स्पर्श करता है। आगे की धरती खेतों की मर्यादाओं में धान की बलियों को सहेजे पानी के पालने में हिलोरे ले गीत गाती सी लगतीं हैं। आगे एक बड़ा सा पहाड़ दीखता है पास आने पर वृक्षों के झुंड में बदल जाता है। यहां साल के लम्बे और ठन्डे इन तनों के बीच कभी-कभी भालू जड़ों को खोदते, दीमक को घेरते दीखते हैं और यही से ये भालू सड़क पार करके नगरनार बस्ती के पास के गन्ने और भुट्टे के खेतों में जाने का लोभ संवरण नहीं कर पाते।


इसी सड़क के पास चोकावाड़ा आने के पहिले लोगों का हुजूम दिखता है। लोग आपस में लड़ते-झगड़ते से दीखते हैं पास जाने पर हम अपने को अस्थायी बाजार में पाते हैं लोगों के अंदर का लड़ाकू आदमी अपने तौर-तरीके मुर्गे में स्थापित कर, अपने खोजे हथियार के छोटे, छोटे रूप मुर्गे के पैरों में बांध अपनी लड़ाई लड़ता तो दीखता है पर लड़ता हुआ मुर्गा, लहूलुहान होते दूसरे मुर्गे को मारकर जीतने के लिए कटिबद्ध, मौत का खेल खेलता है, मुर्गो के एक दूसरे पर किये वार, उड़ते हुए खून के धब्बे, छिटकते  मांस के कतरे लोगों मे उतेजना भर देते हैं, जब एक मुर्गा  मरता है तो आदमी जीत जाता है। हारा हुआ मुर्गा, जीते आदमी का भोजन बन जाता है। जीता हुआ मुर्गा अपने जिन्दा रहने का एक सप्ताह और जीत लेता है। लगता है जैसे दुनिया भी अपने विकास के नये हथियारों से कुछ समय और जिन्दा रहने की गुजाईश पैदा करती चलती है। बाजार के कोने में महिला, बूढ़े-बच्चे बाजार करते, 50 पैसे का धना, 1 रूपये का जीरा, 2 रूपये का तेल खरीदते दीखते हैं।

इस जगह आकर मेटाडोर चिल्लाकर रोकनी होती है और रास्ते में छोटा सा पेड़ों का झुरमुट और पगड़डी से जाते हुए दो वृक्षों के मध्य छं इंच की मकड़ी चिड़ियों को फांसने फंदा लगाये दिखी। उसका फोटो ले--दो ही कदम बढ़े कि हमारे फोटोग्राफर महोदय को डायरिया की शिकायत हो गई। किसी तरह उल्टी-दस्त कराते. गांव के सरकारी अस्पताल पहुंचे तो बन्द मिला, उसके अहाते में गायें बेफ्रिक बैठी हमें देखती रहीं। बाजू में ही एक छप्पर नुमा कमरे में वैध जी मिल गये। मैने कहां कि भाई इस आदमी को वैसे ही ठीक कर दो जैसे बिगड़ी गाडी को गैरेज तक पहुंचाना होता है। बस यह चल फिरने लगें?  उन्होंने फोटोग्राफर महोदय को कुछ आयुर्वेदिक दवा, कुछ अंग्रेजी और इंजेक्शन दिये। यह जुगाड़ की दवा-दारू हमारे ग्रामों में आम है।

केवल ढाई घन्टे के ताजे-ताजे स्वस्थ हुये  फोटोग्राफर महोदय को फिर व्यापार की चिन्ता हुई। हम उसी हालत में भतरा बस्ती गये। भतरा जनजाति के खान-पान,  टूटे-फूटे घर,  कपडे,  गन्दगी करते बच्चे,  मजबूर काम करती औरतों, टूटे फूटे बरतन, जंगल से लाये विविध खाने का सामान, पुराने पड़ चुके टूटे-फूटे देवस्थानों के विविध कोणों की फोटो लेते अपने आप को इस आदिम स्मृति के संरक्षण करने का आत्मसंतोष जताते हुए देश के सबसे जिम्मेदार संस्कृतिकर्मी का वैचारिक आवरण महसूस करते हुए। हम अजीब सी बैचेनी में घिर गये।


हम लाल-गुलाबी होते सूरज के सामने के बादलों को पहाड़ों की तुलना करते देखते सड़क की ओर लौटने लगे। शरीर और मन के साथ जैसे आत्मा भी थक गई। पीछे मुड़कर देखना अच्छा नहीं लग रहा था। अपने रोजगार की इतिश्री करते...करते.. रात को ही जगदलपुर आ गये और फिर सोचा कि रात भर जगदलपुर के मच्छरों की दावत बनने से तो अच्छा है कि हिचकोले खाते हुए रायपुर पहुंच कर भोपाल जाया जाये और हम निकल लिए।
क्रमशः

Thursday 14 July 2011

कविसंध्या

अच्छा-अच्छा मैंने उनको पढ़ा है। नेहरू के आव्हान पर घर छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूदे, फिर शिक्षा की अलख जगाने ग्राम जीवन अपनाया, ग्राम जीवन की जो तस्वीर उन्होंने अपनी कविताओं में उतारी है। उसकी समीक्षा लिखना चाहता था। अच्छा...वे जब युवा थे तो कविता पढ़ते उनका गर्वीला स्वर और दमकता चेहरा अब भी याद हैं। अच्छा .. वे ख्यालीराम और ईसुरी की प्रतिभा के समान्तर हैं। अच्छा..अशोक जी उनके विन्यास में छपने के लिए कवितायें भेजते थे अच्छा.. वे बच्चन जी के प्रिय कवि हैं...अच्छा.. भवानी दा के साथ कवि सम्मेलनों में दीखते थे। अच्छा... त्रिलोचन, मलय, नार्गाजुन जैसे कवि की उंचाई के कवि हैं अच्छा उनसे अच्छा आदमी जो कवि भी हो हमने नहीं देखा, अच्छा वे इतने बड़े साहित्यकार के पिता भी हैं। अच्छा... वे साहित्य के इतने बड़े स्तंभ हैं.. अच्छा...उनके गीतों में बुन्देली माटी की महक है अच्छा.. राष्ट्रपति पुरस्कार मिला है वे एक साहित्य के युग हैं..वे इस सदी के वरिष्ठ और शीर्षतम कवि साहित्यकार हैं।

अच्छा ..60 के हो गये..वाह भई ...70 वां जन्मदिवस पर कविता संघ्या मनाई है...अरे राम... 80 के होने पर भी लिखते पढ़ते हैं, अरे हम तो इस उम्र तक आने की सोच ही नहीं सकते, आप कहां असली घी वाले और हम कहां मिलावटी तेल वाले...उन्होंने साहित्य तो खूब लिखा है पर छप नहीं पाया.. । क्या... तीन बेटियों की शादी करते पैसा खत्म हुआ और सबसे छोटे लड़के के पास रहते हैं शान से...  । बुहुत दिनों से, उनके बारे में.. कुछ पता नहीं चला...हां बेटा, दूसरे राज्य में जाकर बस गया सो बेचारे करते भी तो क्या... जाना ही पड़ा, ..अरे भाई जीवन भर जिस माटी के बारे में लिखा,  जहां सब कुछ किया,   जीवन की संध्या में वहां जाकर क्या मजा कर रहे हैं।...उनकी तो सम्मान पाने की उम्र है...बहुत दिनों से उनके बारे में पता ही नहीं लगा.. पता नहीं, हैं भी, कि नहीं,.. देखो कोई फोन नम्बर हो तो बात करेंगे...उनका लिखा साहित्य तो बहुत था लेकिन कोई ध्यान नहीं दे पाया अब तो वे उसे सम्हाल कर रख भी नहीं पाते होंगे

क्या बहुत बूढ़े हो गये हैं। चल नहीं पाते..हम साहित्यकार भी क्या करें, काम-धाम से फुरसत ही नहीं मिलती,  हमारे शहर में इतना बड़ा साहित्यकार रहता है। जो पूरे देश में वरिष्ठ भी है लेकिन क्या करें पत्रिका के काम से तो फुरसत मिलती नहीं। उनके घर के पास ही विज्ञापन लेने रोज ही जाता हूं। पर सोचता हूं साहित्य की बात शुरू हुई तो बस दिन गया काम से। देखते हैं... उनके जन्मदिन पर कुछ करने की सोचते हैं

यार हम और हमारा साथी भाई एक बार ढूंढते ढूढ़ते उनके घर पर गये थे। जाते ही हमने देखा कि वे तो पूरे प्रेस हैं। लिखे-जा रहे... लिखे जा रहे........... भाई, मेरे पास किसी का साहित्य पढ़ने की फुरसत कहां हैं, हां.. मैंने दो-तीन प्रकाशकों के नाम-पते बता दिये है। और बताया है कि कागज का खर्चा की व्यवस्था कर दें और सी.डी. पर पूरा मिल जाये तो प्रकाशक तैयार हो जाते हैं। 10 कापी आपको दे देंगे। बाकी वो छापता रहेगा, चाहे कितनी भी प्रतियां आपका तो नाम ही होगा

वे कह रहे थे कि थोड़ा सा पैसा बचा है सोचा था बीमारी में काम आयेगा और बाकी मेरी अंतिम यात्रा के लिए रखा है। सोचता हूं कि छपाई में खर्च करूंगा तो क्या बच्चों पर बोझ बनूगा। अब सोचता हूं कि साहित्य कहीं दान कर दूं,  कम से कम किसी के देखने के तो काम आयेगा और जब कोई मेरे साहित्य पर लिखना चाहेगा तो ढूंढ ही लेगा।

पीठ में दर्द से चल नहीं पाता, हृदय में भी कफ बनता है। अब लिखना तो बन्द हो गया है... पूरी शाम टी.वी. देखते रात हो जाती है। सब कहते हैं बात अधिक न करो दर्द बढ़ जायेगा।

घर में इतना साहित्य रखने की जगह नहीं है, दीमक का खतरा तो है ही, और कहीं घर के लोगों ने इसे रद्दी में फेक दिया तो मेरी आत्मा भटकेगी। मैं मोक्ष नहीं चाहता, मरने के बाद में इन्हीं किताबों में समा जाउंगा..

Tuesday 12 July 2011

नगरनार- मिट्टी कला ग्राम / बस्तर की पांरंपरिक शिल्प कला


  नगरनार मिट्टी शिल्प-एक कला ग्राम

बस्तर की पांरंपरिक शिल्प कला
आगत की बस्तर पर दृष्टि-एक
Agat View on Bastar-1

बस्तर की पांरपरिक शिल्प कलाओं को पुरातन समय से बार-बार प्रतिध्वनित करता यह गावं, नदी के किनारे अलसाया सा पढ़ा रहता है। नदी के साथ रोज सृजन का रिश्ता, हर सूरज उगने के साथ ही सार्थक अगुलियों से आदमी के आत्मतत्व की मिट्टी, नदी की मिट्टी से सृजन करती, रोज अपने को नये रूप में पसार देती है। नदी के इन किनारे ने कुम्हारों को बाध्य किया यहीं बस कर रह जाने के लिए,  नगरनार के आस-पास की मिट्टी के अनेक प्रकार मिल जाते हैं। मिट्टी की यह अलग-अलग प्रकृति इस सृजन स्थल को खुद ही चुनती है।
 नगरनार में कुम्हारों के लगभग 50 परिवार हैं जो सदियों से दैनिक उपयोग की सामग्री, शिल्प, अनुष्ठान सामग्री बनाते आये हैं। लोक विनिमय प्रथा के चलते तो पूर्व में केवल उदर पोषण पूरा करते हुए अल्प कामनाओं के चलते यहां समय ठहरा हुआ सा जान पढ़ता है। बहुत समय से मानो कुछ बदला ही न हो। बस बदला तो रोज ही उंगलियों से बहता सृजन,

 नगरनार ने जहां कला के अनेक मूल्य सहेजकर रखे, शिल्प के पारंपरिक आकार को स्मृतियों में सहेजे रखा, और नवीन रूपाकारों से भी परहेज नहीं किया। अपने परिवेश को शिल्पांश्रम की मर्यादाओं से सर्देव आरक्षित और पोषित किया। अपनी विरासत को अपनी पीढ़ियों तक निरंतर जारी रखने का महती काम किया, और इस कठिनतर जीवन शौली से कभी भी परहेज नहीं किया। नगरनार ने समाज और संसार को अपनी ओर से भरसक देने की कोशिश की। और आज नगरनार शैली पूरे देश की बची-खुची ‘ौलियों में से एक है जो अपने अस्तित्व को बचाने की अंतिम कगार पर खड़ी हैं। 

देश में कला परोपकारी सामाजिक, सांस्कृतिक, राज्यों की शासकीय, देश की केन्द्रीय संस्थाओं, ने अपने-मानदण्डों से जो भी यहां किया उसके कुछ भी सूत्र यहां नहीं दिखते हैं। एक कला ग्राम को कैसे संरक्षित किया जाये इसके लिए पूरे देश में संगठनों, संस्थानों की भरमार है। लेकिन बजट बनाने पर लोगों के नगरनार पहुंचने का खर्चा अधिक और उस कलाकार के जेब और पेट में पहुंची सहायता का धन इतना कम है। कि कहते हुए शार्म आती है।

कलाकारों की हालत तो यह है कि चक्र बनाने के लिए, मिट्टी लाने के लिए, शिल्प पकाने के लिए पैसों का अभाव रहता है। और यदि शिल्प बन जाये तो उसकी विक्रय समस्या सामने होती है।

देश में शिल्प को बाजार तक पहुंचाने के लिए अनेक एन.जी.ओ., राज्य और केन्द्र की अनेक योजनायें हैं। योजनायें आकाशीय मार्ग से आने वालों के वश में होती हैं। लोग दिल्ली से प्लेन से आते, 3स्टार होटल में ठहरते, रायपुर से ए.सी. कार लेकर जगदलपुर में ठहर कर रात्रि विश्राम कर प्रातः नगरनार पहुंचकर सुबह के सूरज की रोशनी में चमकदार शिल्पों और धुंऐ से काले होते बूढ़े शिल्पियों की आंखों, गालों के गढ़ढे, हाथों की धिस चुकी लकीरें जो चेहरे पर छप गई हैं उनके कलात्मक फोटो संकलित कर, अपने अफसरी पहनावे, शब्दों के बंधाये आसरे, विकास की झूठी चमक चमकाते, अपने साथ के आदमियों की आंखों में इशारा करते कि इन्हें मैनेज कर लेना। चले जाते....फिर लौटकर नहीं आते...

 बच्चे कार को धुएं उड़ाते आते देखते और धूल उड़ाते जाते दीखते-दीखते जवान होते जाते, पिता की पारंपरिकता अब उन्हें रास नहीं आती है। छोटी सी जमीन जो शिल्पों के लिए अधिक थी अब नगरनार के प्लांट लग जाने से जमीन की कीमत और उसके एवज में सरकारी नौकरी मिलना नवजीवतों के लिए ज्यादा लाभप्रद लगता है।

अब जो नगरनार के पुराने आलेखों, बोशरों, या सूचनाओं के आधार पर जो भी योजनायें बनायी जा रही हैं उनका उपयोग अब सार्थक होने की संभावना नहीं हैं। नगरनार की कला परिवेश तब जीवित रहता जब कला, परम्परा से आगे विरासत के रूप में आगे बढ़ती। यह नहीं हो सका। और अब बस नगरनार की कला ग्राम की पहचान असली से नकली होने की है।

पूरे देश में कला, शिल्प, सांस्कृतिक संस्थाओं, सहयोगी संस्थाओं ने कलाकारों के लिए विभिन्न योजनाओं के लिए एक सूत्र दिया था और बहुत सारा पैसा इस पर खर्च भी किया। विचार था कि सारी पारंपरिक कला परंपरा को दस्तावेजीकरण कर लिया जाये। 1980 से 2000 तक ऐसे कलाकार समुदाय को ध्यान में रखकर पैसा खर्च हुआ कि हमारी शोष विरासत अब इन 60 साल से 80 साल के कलाकारों के पास संरक्षित है। सो इनका समग्र संकलन किया जाये। यह कहते-कहते वे समय काटते रहे। यह कहने वाले अफसर आदि अब तक रिटायर हो चुके हैं। तो उस समय के बाबू महोदयों ने एक अजब तरीका ढूंढा है और वह यह है कि कलाओं में नवीन नवाचार नवआकार नवउपयोगिता अनुसंधान करते हुए कलाकारों के बाजारों को उन्नत किया जाये।

एक समय तो यह भी हुआ कि देश की सारी कलाओं को एक स्थान पर लेकर आया जाये। कलाकार एक दूसरे के कला आयामों का अध्ययन करें। एक दूसरे से सीखें और अपने गांव लौट कर उस विधि से काम करें। इन आयोजनों ने शिल्प कला की अपनी निजी स्थानिकता को गम्भीर नुकसान पहुंचाया। शिल्पी अपनी पारंपरिक विरासत को छोड़ बाजारवाद के अंधेरे गलियारे में भटकने को मजबूर हुए।

दरअसल ये सारे विचार, ये सारी योजनायें कलाकार, कलाविशेषज्ञों, ग्रामीण कला पारखियों की नहीं थी। ये योजनायें तथाकथित पिछले दरवाजे से नौकरी ढूंढकर आने वाले, टाईपिस्ट की पोस्ट पर आते हुए मैनेज कर अफसर की बगल में जाकर अभिनव योजना बताने वालों और रिटायरमेंट तक या जब तक नौकरी करना हो तब तक के लिए सांस्कृतिक व्यक्ति का आडंबर ओड़े व्यक्तियों का काम-कौशल था। ये सभी हिन्दी साहित्य के पढ़े लोग थे जिन्हें सीधे-साधे गांवों के कलाकारों के समूह को नियंत्रित करना मुश्किल न था।
कलाकारों ने इन सब अडम्बरवान लोगों के शब्दविलास से आकर्षित होकर इन पर विश्वास किया और परिणति में देश की कलाओं, और कला की पारंपरिक विरासत की प्रथा अब अपने अंत की कगार पर खड़ी है।

शिल्प उन्नयन संस्थाओं ने तो शिल्पियों के शिल्प के जो मानदंड स्थापित किए वे इतने विदेशी है कि देखकर दुख होता है। अब शिल्प संस्थाओं में शिल्प के नवाचार के नाम पर शिल्प के कारखाने खोलने का परिवेश दीखता है। एकाकी सृजन और परम्परागत शिल्पों, स्थानिकता के रूपांकनों को त्यागते हुए। अनेक तरह के नवाचार हुए हैं जिनके कारण पारंपरिक कलाकार बेरोजगार है।

 जो शिल्प बाजार में चलता है उसकी डाइ बन जाती है और उसे बाजार की मांग विक्रय के अनुसार हजारों की तादात में बनाया जाता है और आकार की एकता रखी जाती है। इस तरह कलाकार के हाथों का प्रथम शिल्प जो आकर्षित करता है उसे लेकर उस कलाकार को उसका इतनी संख्या में बनाये जाने का कोई लाभ नहीं मिलता। उसे कहा जाता है कि जो प्रशिक्षक कह रहा है वह करो। जो तुम्हारी कला है उसे घर पर ही छोड़कर आओ। इस तरह वह कलाकार न होकर एक मजदूर की हैसियत का हो जाता है। साथ ही कहा जाता है कि बच्चों को भी हम रोजगार देंगे बच्चे जब प्रशिक्षक के पास जाते हैं तो वह उन्हें वह शिल्प बनाने की ट्रेनिंग देता है जो पूरे देश में एक ही तरह का दिखता है। इस तरह कला की मूल आत्मा मार दी जाती है।

जिस हाथी को देखते ही हम गणेश की याद करके हल्दी का टीका लगाते दूब चढ़ाते शुभ काम के होने की आशा करते। उस हाथी के शिल्प को ऐश ट्रे में परिवर्तित कर निर्मित करते हैं। जिसका उपयोग ऐश टेª में सिगरेट के ठूंठ कुचलते होता है। कला का बेहुदा निर्माण और उसके हिस्से से कला का लगातार अपमान हमें पता नहीं शिल्पों की किस दुनिया में हमें ले जायेगा, जहां हम अपने देश संस्कृति का पर गर्व करेंगे या सहेंगे अपमान ?

इतने कर्मचारियों, अफसरों, बुद्धिजीवियों, नेताओं, संगठनों, संस्थाओं, राज्य सरकारों, केन्द्र सरकारों ने इतनी योजनायें बनाई, इतना पैसा खर्चा दिखाया, इतने उपयोगिता प्रमाण पत्र बनाये, इतनी नोटशीटें लिखी, इतनी जरूरतें दिखाई, इतने लेख लिखे, इतने सम्मान प्राप्त किये, पर नगरनार के शिल्प और उसके पारंपरिक शिल्पियों को को क्या मिला, उनका वर्तमान इतना वीभत्स है भविष्य क्या होगा ?
क्या इस विचार पर भी एक नये बजट की संभावना है ???
यह मजाक कब बन्द होगा???
हम हाशिये पर बैठे कला प्रेमी प्रतीक्षारत हैं.....
क्रमशः

Sunday 10 July 2011

भंगाराम-देवताओं का न्यायालय



भंगाराम-देवताओं का न्यायालय

बस्तर के सभी देवताओं की उपस्थिति
जनजातीय पुजारी का महत्वपूर्ण स्थल
शक्तिपात से कापते सिरहा,

नागवंशीय परम्परा के उत्स का समग्र दर्शन
भंगाराम
आंगादेव और देवताओं की यात्रा का जलूस का विचित्र आयोजन
9 परगान के 500 माझी क्षेत्रों के ग्रामों के देवताओं का उत्सव

बस्तर की परम्परा की एक विचित्र और अनूठी स्थली

लोक और जनजातीय संस्कृति के आदिम उत्स की जीवन्तता को बस्तर में आज भी देखा जा सकता है। लौकिक और पारलौकिक शक्तियों की उपासना,
 श्रृद्धा और भक्ति को पुरातन काल से बस्तर की संस्कृति में प्रमुख स्थान मिला है।
बस्तर का देवलोक देश के अन्य जनजातीय क्षेत्रों से अधिक पुरातन, विस्तृत, और समृद्ध है। पारलौकिक शक्तियों के प्रति जितना अनुशासन और समर्पण यहां देखने को मिलता है,अन्यत्र दुर्लभ है।

भादों जात्रा
 छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से जगदलपुर सड़क पर लगभग 130 कि.मी. की दूरी पर केसकाल है। यहां से एक रास्ता सीतानदी अम्यारण्य और ऋषि मंडल सिहावा को जाता है। यह पहाड़ी राम वन गमन के मार्ग में आती है।  केसकाल की पहाड़ी पर वन विभाग के रेस्ट हाउस में ठहरने की सुविधा है। केसकाल की घाटी से बस्तर अपनी प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत ओढ़े नजर आने लगता है।
 केसकाल की घाटी पर और केसकाल की बस्ती से कुछ दूरी पर बस्तर की प्रमुख देवी भंगाराम देवी का शक्ति स्थल है। इसे देवताओं का न्यायालय भी कहा जाता है। कहा जाता है कि बस्तर के राजा को देवी ने स्वप्न में कहा कि मैं तुम्हारे राज्य में आना चाहती हूं तब राजा ने मंत्री और प्रजा के साथ बस्तर से केसकाल की घाटी पर देवी के स्वागत के लिए आये। तब बड़ी जोर की आंधी चली और देवी पहले पुरुष वेश में घोडे़ पर सवार होकर आई ओर पास आते  जब लोगों ने उन्हें नमन किया तब वे स्त्री वेश में परिवर्तित हो गई। केसकाल की घाटी में सड़क के किनारे बना मंदिर ही देवी के प्रगट होने का स्थान है। इस स्थान से दो कि.मी. की दूरी पर एक दूसरा मंदिर बनवाया गया यहां पर देवी की स्थापना की गई।

 लोगांे का कहना है कि पूर्व में अनुष्ठानिक स्थल दैवीय शक्ति का शक्तिशाली केन्द्र माना जाता था। लोगों को कोई रोग-दोष होने पर इस स्थान पर लाने पर तीन-चार दिन में वह स्वतः ही स्वस्थ हो जाता था और आज भी यह मान्यता भंगाराम को बस्तर में अन्य किसी देवी-देवता की तुलना में उच्च स्थान प्राप्त है। भंगाराम देवी के स्थान को देवताओं का न्यायालय भी कहा जाता है। भादों जात्रा इस स्थान का महत्वपूर्ण अनुष्ठानिक आयोजन है। यह जन्माष्ठमी और पोला के बीच होता है। यह शनिवार को आयोजित किया जाता है और विशेषकर भादों महिने में ही। इसलिए इसे भादों जात्रा कहा जाता हैै।

इस पूरे आयोजन की शुरूआत ग्राम केसकाल के बाजार से होती है, लोग इकट्ठे होकर भंगाराम मंदिर जाते हैं यहां पर लगभग 100 आंगादेव, हजारों सिरहा जो भाव में होते हैं, सैकड़ों  छत्र एक साथ देखे जा सकते हैं। नगाडे़ की गूंज, जनजातीय स्वर वाद्यों की ध्वनि से माहौल अत्यन्त भावपूर्ण और उत्तेजक हो जाता है। लगभग 2000 जनजातीय अनुष्ठानिक लोग जो बस्तर के आधे भाग में इस पुरातन संस्कृति के संवाहक हैं अपने को सर्वोत्कष्ट पारलौकिक सत्ता के समीप अपने को अनुभव करते हैं। हाथ में कटीली चैन से अपने को ही मारते, भाव में आकर कपकपाते, ऐसी शक्तियों के उपस्थित होने का आभास कराते हैं। जिनके प्रति आधुनिक समाज अब संवेदनहीन होने लगा है। नाग वंशीय संस्कृति की जीवन्तता के दर्शन भादों जात्रा पर किए जा सकते हैं। नागवंशीय संस्कृति के प्रतीक चिन्ह के रूप में आंगादेव को बस्तर में सर्वत्र पूजा जाता है। बड़े देव की आराधना यहां प्रमुख है। इसके प्रतीक त्रिशूल और मंदिर के खम्ब में सभी देवी-देवताओं का प्रवेश माना जाता है।
लोग प्रायः 100-50 कि.मी. दूर से जंगल और पहाड़ में उन्हीं मार्गों से पैदल आते हैं जिन मार्गों से उनके पूर्वज भी आते रहेे।

देव-देवियां
 ग्रामों के लोग आफत या किसी परेशानी होने पर भंगाराम समिति के पास लिखित रूप में आवेदन करते हैं और समिति के पुजारी सदस्य आदि उस ग्राम में जाकर उस विपत्ति को दूर करने का प्रयास करते हैं। भादों जात्रा में भंगाराम देव स्थल पर इसके पूरे नौ परगान क्षेत्रों के गोंड, मुरिया, माड़िया, भतरा आदिवासी अपने आराध्य देव, ग्राम देव और भेंट लेकर उपस्थित होते हैं। जिसे रवाना कहा जाता है। इस रवाना में ग्राम की परेशानियों-रोग-दोष का प्रवेश माना जाता है। रवाना को भंगाराम देवी के मंदिर परिसर में रख देते हैं। जिससे वह बला-रोग-परेशानी भंगाराम के पास कैद हो जाती है और ग्राम उससे मुक्त हो जाता है। ऐसी मान्यता है।

 भंगाराम देवी के स्थल पर परगन के माझी क्षेत्रों के देवी-देवता आते हैं। 1 सिलिया परगन,  2 कोण्गूर  परगन 3 औवरी परगन 4 हडेंगा परगन 5 कोपरा परगन 6 विश्रामपुरी परगन 7 आलौर परगन 8 कोगेंटा परगन  9 पीपरा परगनभादों जात्रा के दिन लगभग 450 ग्रामों के लोग अपने देवताआंें को लेकर आते हैं जैसे छोटे डोंगर, बड़े डोंगर के देव, देतेश्वरी माई, खंडा डोकरा, नरसिंगनाथ, ललित कुंवर, शीतला माता और अनेकानेक देव-देवियां यहां उपस्थित होती हैं।  भंगाराम देवी पूरे परगने की प्रमुख है। यह कार्य भंगाराम देवी अपने मंत्री देवताओं और सहायक शक्तियों के माध्यम से करती है।

इस स्थल पर भेंट स्वरूप जो सामग्री लाई जाती है यदि वह कोई पशु है तो उसे ग्राम के लोग प्रसाद स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं और अन्य वस्तु को यहीं छोड़ देते हैंं। माना जाता है कि यहां से कोई वस्तु ले जाने पर आफत भी उस वस्तु के साथ ग्राम चली जायेगी।

मदिर की सारी व्यवस्था नौ परगान क्षेत्रों के माझी क्षेत्रों में ग्रामों से चंदा राशि एकत्रितकीजाती है। इस तरह से यह परस्पर सहयोग से चलाये जाने वाली व्यवस्था है।