आदरणीय मित्रो...
2 अक्टूबर 2012 को पिता माधव शुक्ल 'मनोज' अपने स्व में लौट गये...उनका स्थान हृदय में खाली सा हुआ...भाव व्यक्त करने की इच्छा नहीं हुई और सतत् विचार समग्रता से नहीं दिख सका...सो मैनें ऐसा कुछ नहीं किया कि करने का मात्र कर्तव्य बोध हो...लिखना मेरी प्रसन्नता का कारण हो तभी मुझे लिखना उचित लगता है। तभी वह अन्यों के लिए भी बोध बनेगा...हां कभी...कभी भावोत्तेजना वश कुछ प्रतिक्रयायें करता रहा...सो सोचता हूं पहिले उन्हीं को यहां यहां अंकित कर पुनः पुराने अन्र्तसम्बंध पुर्नजीवित कर लूं...जहां एक बांध से बंध गया था...अब फिर बह सकने का कोई रास्ता निकाल लूं...कृपया सहृदयता से पुनः संबंधित हों...
अब फिर पुनः -1
कलाओं के संसार में राजनीति कला शिखर पर आई और सब कुछ जैसे इस कला से नियंत्रित होने लगा। इस कला के शिखर की यात्रा तो अब जैसे पूरी होने को है। इस कला की अंतिम उचांइयों को अब जैसे देख समझ लिया गया सा लगता है। तो अब या तो राजनीति के यात्री गौरीशंकर के जैसे शान्त और स्थिर हो जाये तो राजनीति शिखर पर ही रहेगी। अन्यथा शिखर से आगे की यात्रा गहरी खाईयों में खो जाती है। और जितनी उंचाई तक चढ़े तो गिरने का खतरा और उसका नुकसान ज्यादा ही होता है...
चाण्क्य को पढ़े तो शायद समझ आता है कि राजनीति की थाली में अर्थशास्त्र का नमक बस थोड़ा होना चाहिए। यदि हम अर्थशास्त्र का नमक अधिक डालेंगे तो राजनीति की साग खाने लायक नहीं रहेगी।
यह समय भरोसे की मृत्यू रूदन का है। संविधान के क्षितिज का भ्रम टूटने को है। शपथ की गरिमा और मर्यादा का भाव अब जमीर को नहीं जगाता। संवेदनाओं का ढ़ाढस आसरा नहीं देता। पता नहीं क्या कमाने के लिए क्या-क्या गवांने को तैयार हैं लोग। सब कुछ.. ठीक करने की व्यवस्था कुछ और अव्यवस्थाओं को पैदा करती चल देती है। भविष्य में सुख होने की आशा अब और भी दुख जगा जाती है और मन... बस अतीत के स्वर्णिक को याद कर सकने भर के अलावा... कुछ भी नहीं कर पाता...
शदे में एक ऐसा भी पक्ष होना चाहिए जो राजनीति में पद की होड़ से बाहर रहकर बात करे.. इससे राजनीति को एक स्वच्छ दिशा मिलेगी। अभी तो ऐसा लगता है कि समाज कल्याण करने की भावना की नदी... समुद्र तक जाती है यानि संसद तक... पर अब ऐसा तबका विकसित होने को है जो अपने को फिर-फिर बादल बनाकर बरसने को है। तो हमें ऐसे लोगों का परिष्कार करना चाहिए जो पद की होड़ में न फसें, वे संकेत का का काम करें और जैसा गांधी ने कहा था कि जिसकी जेब नहीं होगी उसी पर यह देश भरोसा करेगा। तो हमें ऐसे लोगों का सम्मान करना सीखना होगा जो बिना जेब के हों, हमें उन्हें ढूंढना होगा...पहचानना होगा, वे.. अच्छे लोग खुद नहीं.. आते .. उन्हें लाना पड़ता है मनाना पड़ता है...पलक पांवड़े बिछाना पड़ता है कहना पड़ता है कि आईये और हमारी मदद कीजिऐ...देश के राजनीतिक पद-कद-अनुरागी जब तक ऐसा नहीं करेंगे... देश की राजनीति गर्त में जायेगी...
सम्भावनायें इंतजार कराती हैं। नई संभावना को देखने के लिए नई आंख चाहिए और नई आंख रखने के लिए अपनी अन्र्तदृष्टि के चैतन्य को जगाये रखना चाहिए...ताकि जब चुनने की बारी आये तो सही को पहचान कर चुन सके...
जो संभव है वह होना तो एक बहाव है। लेकिन नदी के विपरीत जाना एक विद्रोह है। इतिहास उन्हीं को याद रखता है जो असंभव की सीमा में प्रवेश करते हैं। वास्तव सत्य की झलक संभव से नहीं असंभव में उतरने से ही मिलती है। और जिसे इसमें एक बार रस आ जाये फिर तो.....समय भी उसके नाम से पहिचाना जाता है। ऐसी कुव्वत आज भी अपने माध्यम को तलाश रही है..
2 अक्टूबर 2012 को पिता माधव शुक्ल 'मनोज' अपने स्व में लौट गये...उनका स्थान हृदय में खाली सा हुआ...भाव व्यक्त करने की इच्छा नहीं हुई और सतत् विचार समग्रता से नहीं दिख सका...सो मैनें ऐसा कुछ नहीं किया कि करने का मात्र कर्तव्य बोध हो...लिखना मेरी प्रसन्नता का कारण हो तभी मुझे लिखना उचित लगता है। तभी वह अन्यों के लिए भी बोध बनेगा...हां कभी...कभी भावोत्तेजना वश कुछ प्रतिक्रयायें करता रहा...सो सोचता हूं पहिले उन्हीं को यहां यहां अंकित कर पुनः पुराने अन्र्तसम्बंध पुर्नजीवित कर लूं...जहां एक बांध से बंध गया था...अब फिर बह सकने का कोई रास्ता निकाल लूं...कृपया सहृदयता से पुनः संबंधित हों...
अब फिर पुनः -1
कलाओं के संसार में राजनीति कला शिखर पर आई और सब कुछ जैसे इस कला से नियंत्रित होने लगा। इस कला के शिखर की यात्रा तो अब जैसे पूरी होने को है। इस कला की अंतिम उचांइयों को अब जैसे देख समझ लिया गया सा लगता है। तो अब या तो राजनीति के यात्री गौरीशंकर के जैसे शान्त और स्थिर हो जाये तो राजनीति शिखर पर ही रहेगी। अन्यथा शिखर से आगे की यात्रा गहरी खाईयों में खो जाती है। और जितनी उंचाई तक चढ़े तो गिरने का खतरा और उसका नुकसान ज्यादा ही होता है...
चाण्क्य को पढ़े तो शायद समझ आता है कि राजनीति की थाली में अर्थशास्त्र का नमक बस थोड़ा होना चाहिए। यदि हम अर्थशास्त्र का नमक अधिक डालेंगे तो राजनीति की साग खाने लायक नहीं रहेगी।
यह समय भरोसे की मृत्यू रूदन का है। संविधान के क्षितिज का भ्रम टूटने को है। शपथ की गरिमा और मर्यादा का भाव अब जमीर को नहीं जगाता। संवेदनाओं का ढ़ाढस आसरा नहीं देता। पता नहीं क्या कमाने के लिए क्या-क्या गवांने को तैयार हैं लोग। सब कुछ.. ठीक करने की व्यवस्था कुछ और अव्यवस्थाओं को पैदा करती चल देती है। भविष्य में सुख होने की आशा अब और भी दुख जगा जाती है और मन... बस अतीत के स्वर्णिक को याद कर सकने भर के अलावा... कुछ भी नहीं कर पाता...
शदे में एक ऐसा भी पक्ष होना चाहिए जो राजनीति में पद की होड़ से बाहर रहकर बात करे.. इससे राजनीति को एक स्वच्छ दिशा मिलेगी। अभी तो ऐसा लगता है कि समाज कल्याण करने की भावना की नदी... समुद्र तक जाती है यानि संसद तक... पर अब ऐसा तबका विकसित होने को है जो अपने को फिर-फिर बादल बनाकर बरसने को है। तो हमें ऐसे लोगों का परिष्कार करना चाहिए जो पद की होड़ में न फसें, वे संकेत का का काम करें और जैसा गांधी ने कहा था कि जिसकी जेब नहीं होगी उसी पर यह देश भरोसा करेगा। तो हमें ऐसे लोगों का सम्मान करना सीखना होगा जो बिना जेब के हों, हमें उन्हें ढूंढना होगा...पहचानना होगा, वे.. अच्छे लोग खुद नहीं.. आते .. उन्हें लाना पड़ता है मनाना पड़ता है...पलक पांवड़े बिछाना पड़ता है कहना पड़ता है कि आईये और हमारी मदद कीजिऐ...देश के राजनीतिक पद-कद-अनुरागी जब तक ऐसा नहीं करेंगे... देश की राजनीति गर्त में जायेगी...
सम्भावनायें इंतजार कराती हैं। नई संभावना को देखने के लिए नई आंख चाहिए और नई आंख रखने के लिए अपनी अन्र्तदृष्टि के चैतन्य को जगाये रखना चाहिए...ताकि जब चुनने की बारी आये तो सही को पहचान कर चुन सके...
जो संभव है वह होना तो एक बहाव है। लेकिन नदी के विपरीत जाना एक विद्रोह है। इतिहास उन्हीं को याद रखता है जो असंभव की सीमा में प्रवेश करते हैं। वास्तव सत्य की झलक संभव से नहीं असंभव में उतरने से ही मिलती है। और जिसे इसमें एक बार रस आ जाये फिर तो.....समय भी उसके नाम से पहिचाना जाता है। ऐसी कुव्वत आज भी अपने माध्यम को तलाश रही है..
एक बहाव एक विद्रोह . इतिहास उन्हें याद रखता है जो असंभव की सीमा में प्रवेश करते है . गहन चिंतन बार बार अध्ययन योग्य
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका स्नेह अपेक्षित
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