इच्छा का गिर जाना ऐसा है कि याद ही न रहे...यह निरोध है और विचार को बलात् रोकना विरोध है। विरोध तो सतत् याद है और इससे उस विचार से मुक्ति का कोई साधन नहीं। मित्र कम याद रहते हैं और शत्रू तो बस मन में लगातार बने ही रहता है। शत्रू के संबंध से मुक्त नहीं हुआ जा सकता। इसलिए प्रचार का मुख्य माध्यम अब मनोवैज्ञानिक रूप से विरोध ही है। अन्ना और रामदेव का समर्थन जितनी बात पैदा नहीं करना उससे अधिक उनका विरोध उन्हें निखारता है। कभी जिन लोगों ने महात्मा गांधी का विरोध किया तो वे बड़े नेताओं के रूप में प्रतिष्टित हुए । दुनिया अब सकारात्मकता के प्रति उदासीन है और नकारात्मकता के प्रति आकर्षण से बार-बार बंध जाती है और छली जाती है। आप पश्चिमी सभ्यता का जितना विरोध करेंगे वह बार-बार आपके आंगन में नाचेगी और आप अपनों के बीच ही अलगाव से धिर जायेंगे। इसलिए उसके प्रति उदासीन रवैया, बोरियत का भाव, व्यर्थता का भाव जब तक सघन नहीं होता। तब तक इस रेड ऐरिया की संस्कृति आपके घर में नाचेगी-गायेगी..
अब नियमों की दुहाई देने वालों की बुद्धि पर तरस आता है। किसी विचार के फैलाने का तरीका ही यही है कि उसका विरोध किया जाये...तो जनता उसे संज्ञान में लेती है। उस पर अधिक ध्यान देती है। यह तो वही बात हुई कि यदि चुप ही रह जाते तो यहां तक बात ही न होती.......यह सब करके आज जितने हाथी छुटटे जंगल में धूमते उत्पात मचाते जो प्रचार हासिल न कर सके... वे यह बुत बने हाथी मात्र कपड़े से ढके...क्या ढक सकेंगे...और सोचो हाथी चाहे असली हो या नकली वह ढ़कने चीज ही नहीं है। हाथी को ढ़कने से उसका उभार तो नजरअंदाज हो नहीं सकता...हां वह फिर फिर याद में आयेगा और भी अधिक शक्ति के साथ.... तो यह तो बच्चों वाली बात हो गई...मुझे तो लगता है...दुनिया की मनोवैज्ञानिक दशा का आकलन कर कानून को फिर-फिर सुधारने की जरूरत है और हां जैसे नई गाड़ी के लिए नए औजार लगते हैं वैसे ही नई दुनिया की स्थिति परिस्थति के हिसाब से नये तरह के निर्णय चाहिए जिससे न्याय का गर्व बना रहे...
भारत का धर्म इतिहास मौखिक मर्यादाओं के रास्ते दिखाता है। रामकथा और महाभारत इन्हीं लोक मर्यादाओं के मूल्यों के साक्षी है। तर्किक बुद्धि के मानव के कृत्यों को शब्दों की व्यवस्था में नहीं बांधा जा सकता, घेरा नहीं जा सकता बल्कि उसे अलिखित मर्यादाओं और लोक मूल्यों के प्रति जिम्मेदारी से ओत-प्रोत कर समाजोन्मुख बनाया जा सकता है। बड़े हुए विधान... बड़ी व्यवस्था को जन्म देंगे...और वह तेजी से अव्यवस्थित होती चली जावेगी...सम्हाले नहीं सम्हलेगी...
अब नियमों की दुहाई देने वालों की बुद्धि पर तरस आता है। किसी विचार के फैलाने का तरीका ही यही है कि उसका विरोध किया जाये...तो जनता उसे संज्ञान में लेती है। उस पर अधिक ध्यान देती है। यह तो वही बात हुई कि यदि चुप ही रह जाते तो यहां तक बात ही न होती.......यह सब करके आज जितने हाथी छुटटे जंगल में धूमते उत्पात मचाते जो प्रचार हासिल न कर सके... वे यह बुत बने हाथी मात्र कपड़े से ढके...क्या ढक सकेंगे...और सोचो हाथी चाहे असली हो या नकली वह ढ़कने चीज ही नहीं है। हाथी को ढ़कने से उसका उभार तो नजरअंदाज हो नहीं सकता...हां वह फिर फिर याद में आयेगा और भी अधिक शक्ति के साथ.... तो यह तो बच्चों वाली बात हो गई...मुझे तो लगता है...दुनिया की मनोवैज्ञानिक दशा का आकलन कर कानून को फिर-फिर सुधारने की जरूरत है और हां जैसे नई गाड़ी के लिए नए औजार लगते हैं वैसे ही नई दुनिया की स्थिति परिस्थति के हिसाब से नये तरह के निर्णय चाहिए जिससे न्याय का गर्व बना रहे...
भारत का धर्म इतिहास मौखिक मर्यादाओं के रास्ते दिखाता है। रामकथा और महाभारत इन्हीं लोक मर्यादाओं के मूल्यों के साक्षी है। तर्किक बुद्धि के मानव के कृत्यों को शब्दों की व्यवस्था में नहीं बांधा जा सकता, घेरा नहीं जा सकता बल्कि उसे अलिखित मर्यादाओं और लोक मूल्यों के प्रति जिम्मेदारी से ओत-प्रोत कर समाजोन्मुख बनाया जा सकता है। बड़े हुए विधान... बड़ी व्यवस्था को जन्म देंगे...और वह तेजी से अव्यवस्थित होती चली जावेगी...सम्हाले नहीं सम्हलेगी...