Wednesday 31 August 2011

नर्क बीज जम्बूदीपे भरत खण्डे

नर्क बीज जम्बूदीपे भरत खण्डे
ब्लॉ.आगत शुक्ल,31 अगस्त, 2011 

भारत का मन सत्य को कथाओं की ध्वनियों संप्रेषण करता है और ध्वनि व्यक्ति के ग्राहय गुण और उसके अपने तल के गुण रूपों में वर्तती है। कथाओं के स्वर, शब्द ध्वनि के बीजों को हर व्यक्ति के हृदय की उर्वरा और उसके परिवेश से अपने-अपने अर्थ संम्पे्रषित करते अपने अर्थ गढ़ते है, पुरातन परिवेश अपने समय के नर्क को कथाओं में और वर्तमान समय अपने-अपने नर्क को हमारे आसपास के परिवेश में दिखाता चलता है। जिसमें हमने  अपने-अपने तरह के दुख-सुख तय किये हैं और जाने-अंजाने अपने नर्क और स्वर्ग भी तय कर लिये...हमने अपने सारे संसाधनों के आयोजन और प्रयोजन पर सुख की तख्तियां लगा ली हैं, किसी वि़द्धान का कथन है कि जब हम किसी व्यवस्था को चलाने के लिए जो आयोजन प्रयोजन करते हैं। एक दिन वे आयोजन-प्रयोजन खुद व्यवस्थागत बोझ बन जाते हैं। हमने इस सदी में अपने हाथों से बनाये नर्क ईजाद कर लिए है। हमने अपनी तरह की सार्थकतायें गढ़ ली है।

कहते हैं कि मृत्यू के बाद पहिले पुण्य का फल मिलता है और फिर पापों का हिसाब-किताब होने के बाद ही इस संसार में आने की बारी लगती है l आवागमन चाहे शरीर का हो या रेल का, दृश्य अपने बदले स्वरूप में होता है लेकिन उसकी मूल वेदना एक सी है। मूत्र उत्सर्जन का मार्ग और हमारे जन्म का द्वार भी... यदि नर्क के पहले-पहल की तत्क्षण स्थिति में नर्क हमारा पहला क्षण होता है  फिर अनंत से आने वाले मानस में फिर-फिर संसार जकड़ लेता है।

अष्टावक्र जन्म के पहिले ही पिता के उपनिषद प्रवचन को असत्य कह देते हैं बदले में पिता के श्राप से आठ जगह से टेढे हो जाते हैं, cq) जन्मते ही आठ कदम चलते हैं और चार आर्य सत्य कहते हैं जिसमें पहला है ‘ संसार दुख है ’

रेल जब भी शहर में प्रवेश करती है नर्क के समतुल्य दोनों किनारों का परिवेश अपने गन्ध, दृश्य, ध्वनि और पहियों के घिसटने से उठती लोहे की जली गन्ध स्टेशन के समीप्य का अहसास कराती है। स्टेशन... संसार.... आने वाला है। अब बुद्ध का मज्जिम मार्ग ओझल होने लगता...स्टेशन एक संसार  की तरह हो जाता है। पद की उंचाई प्रथम श्रेणी के आराम कक्ष में, पद की लम्बाई दृतीय श्रेणी कक्ष में और पद का शून्यत्व  फुटपाथ को तय करती है। जेब में रखा धन पुण्यरूप, गर्म काफी की चुस्की में, दृतीय क्षेणी पेट की भूख मिटाने की गठजो़ड़ और तृतीय श्रेणी भूख और भीख पर अपना समय काटती...

उतरना जरूरी हो तो यह स्टेशन है.. उतरते ही भीख मांगते बच्चे बूढ़े जवान, औरतें, लगडे़-लूले, सड़ते, घिसटते अपना नर्क में अपने-अपने रोल करते दीखते, इस परिवेश को नजरअंदाज करते यात्री वैराग्य प्रदष्रित करते इन शरीरों को ईश्वर के भरोसे छोड़ पूरे विश्वास से अपने उन घरों की चल देते जो उनके अपने-अपने संसार है। स्टेशन के बाहर अधूरी टूटी-फूटी सड़क, कामेच्छा और उदरेच्छा की पूर्ति करने की इच्छा से घूमते छोटे-बड़े कुत्तों का समूह, एक दुबली-पतली कुतिया जो स्टेशन के कोनों में पड़ी अधखायी चीजों, बच्चों की दूधभरी उल्टी, या अपने ही मरे बच्चे के अधखाये शरीर को अपने जन्मने वाले बच्चे की दूध की चिन्ता में दौड़ती भागती दीखती है। मुझे बरबस अपने देश की हीरोईनें याद आने लगती जिनके लिए अधिक कपडे पहनना नर्क में जाने के बराबर है। इसलिए वे कम कपड़े पहनकर अपने को स्वर्ग में होने का अहसास कराती सी लगती हैं। जिस्म परोसती सी...जलेबीबाई....


यहां से देखें तो शहर विज्ञापनों का शहर लगता है। कुछ बोर्ड केवल अपने ही नम्बर दिखाते नजर आते हैं तो कुछ बोर्ड शlसकीय शराब बेचने का अधिकार रखते हुए गांधी को अपने विज्ञापन में प्रमुख जगह दिखाते नजर आते हैं। चैlराहों पर जहां लाल हरी पीली बत्तियों के सहारे जहां शहर रेंगता रहता है उन्ही चैlराहों पर किन्ही बोर्ड में वर्णसंकर लड़की कुछ ऐसे बैठै दिखती है कि मानो अप्सरा हो, उसकी खुली मांसल जांघों के बीच का काला अंधेरा आंखों को बरबस उसी जगह पर बारंबार ले जाता है जो हमारे आने का द्वार है। इस द्धार का पुरानापन अब भी इतना तरंगित करता है कि उसकी अपनी आर्कषकत्ता बरबस खींचती है कि लाल-हरी बत्ती का ध्यान तो बस छूट ही जाता है और चैlराहे पर वर्दी पहिने संविधान अपने कर्तव्य बोध से आपको झिझोड़ डालता है।

नकली कोलतार से बनी नयी सड़क एक ही बरसात में जंगल के रास्ते में बदली दीखने लगी है जैसे ढली उमर की लड़की ब्यूटी पार्लर से आते होली के हुड़दंगों के बीच जा फसी है। सड़क के दोनों तरफ लगे नेताओं के चेहरे पता नहीं क्यों मुस्कुराते दीखते हैं। जिनकी सत्ता है वे मुस्कुराते हैं ? जिनकी सत्ता पहिले थी और अब नहीं है और न ही आयेगी वे भी मुस्कुराते हैं ? आम आदमी अपने घर की आमदनी का हिसाब लगाते अपनी मुस्कुराहटों की याद करने लगता है।


आगे गर्मी से कोलतार की पिघलती हुई काली सड़क पर नंगे पैर, हाथों में जूते उठाये. देश की सांस्कृतिक विरासत के अंतिम पहनावे को पहने किसान कचहरियों को ओर काले कोट पहिने आदमी के पीछे-पीछे दुम सी दबाये चलते दीखते..., हाथों में हथकड़ी को कलफ किये कुरते के जेब में डाले दूसरे हाथ में मोबाईल से बात करता आदमी सड़क पार करता, बीचों-बीच खड़ा हो जाता है। गांडियां एक दूसरे को देख खुद-ब खुद खड़ी हो जाती। लोग काना-फूसी करते भई कौन है ? गब्बर सिंह, मलखान सिंह, पूजा बब्बा, हरीसिंह, हैं क्या, डाईवर बताने लगता है अरे नहीं..अपने भैया जी हैं...सबके अन्न दाता है...आजकल शनि की दशा के कारण अंदर हैं, ज्यादा दिन नहीं रहेंगे...बस छूट जायेंगे... अब कचहरी तो जाना ही पड़ता है न साहब... देखो...देखो...कार्यकर्ता भैया के पांव छू रहे हैं...

आगे जाम लगा है। नई सड़कों पर गढ़ढे खोद बल्लियां गाड़ दी गयी हैं। लोग आज अपना नाम भूल गये है, काम भूल गये हैं बस वे पार्टी के हो गये हैं जो कल तक जिस पार्टी का झन्डा अपनी गाड़ी पर सजाये घूम रहे थे दूसरी पार्टी के जीते ही उसके अपने हो गये, बाजार से झन्डा ले आये खरीद कर और चैlराहे पर लहरा-लहरा कर... फहरा रहे हैं। अंदर बहुत दूर के मैदान के स्पीकर की आवाज आ रही हैं मैं....शपथ लेता हूं कि जो प्रकरण मेरे..............................उसे मैं पूरी ईमानदारी और निष्ठा से पूरा करूंगा।

साथ में मिले-जुले गानों दबी आवाज भी सुनाई पढ़ती है
लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के भारत की लाज रखना मेरे बच्चो सम्हाल के...
ऐ मेरे वतन के लोगो जरा हाथ में भर लो पानी जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी...

आगे चैlराहे पर किसी महापुरूष की मूर्ति लगाई जा रही है ताबूतनुमा बक्सा गाड़ी से बाहर निकाला जा रहा है। बक्से की पैकिंग किये हुए अखबार के टुकड़े हवा में उड़कर मेरे पैरों तक आकर फंस जाते हैं। वी. आई. पी. आने वाले हैं...रास्ता बन्द हो गया है... पैर में लिपटे पुराने अखबार की कतरने समय बिताने पढ़ने लगता हूं।

खबरें हैं बहुत सारी...रेल, बसस्टेंड, कचहरी, थाना, अस्पताल, कमजोर पुल, खर्चीले कारखाने, डिजिटल बूचड़खाने, नये शराबखाने, विदेशी होटल, गन्दी मण्डी, लोहा और केमीकल कारखाने, प्रदूषित नदियां, छोटा नागपुर में आग पर गांव, बस्तर, सोनामी, बिहार में बाढ़, मुम्बई में आतंकवादी, बादल का फटना, कारगिल के यु़द्धवीर, ताबूतों का व्यापार, सेवा-व्यापार, मिलावट, मंदिर में लोभ, लालच, भ्रष्टाचार, बेईमान नेता, अफसर, सरकार,... जनता मुफतखोर या लाचार....
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मूर्ति  कपड़े से ढकी पढ़ी है....सुना है...नेता जी का हिस्सा-बिस्सा और आफिस का खर्चा शिल्पकार पर इतना भारी पड़ा है कि महापुरूष का सिर अभी तक नहीं बना है...

हम होंगे कामयाब ...गाते हुए स्कूली बच्चे जुलूस निकालकर कतार में आ रहे हैं....

Thursday 25 August 2011

मैं अन्ना नहीं हूं

मैं अन्ना नहीं हूं और तुम भी अन्ना नहीं हो सकते और सभी अन्ना नहीं हो सकते,


हम अन्ना के डुप्लीकेट, कापी, वैसे ही कैसे हो सकेते हैं ?

पूरे देश ने यह गलती सदियों से की और अब फिर दोहराये जाता है।

जब महावीर आते हैं जिन हो जाते हैं.... तो केवल उनको अपना मान लेने वालों के जिन होने की सारी संभावना खत्म हो जाती है। यों कहें कि कोशिश की मूल भावना ही शांत हो जाती है। जब बुद्ध आते हैं तो लोग मान ही लेते हैं कि बुद्ध की कापी करके बौद्ध हो जाने की। इनमें, जिनमें वो तत्व, जो बुद्ध ने अपनी चेतना से पाया। अपनी-अपनी समझ की चेतना से अपना और अपने तरीके का, अपनी तरह का जो तत्व समझ आना था अनेक लोग उससे वंचित रह गये जबकि उनमें इस तरह की महती संभावनायें थी। तो समाज से बाहर जाना... एकांतिक होते जाना.... इससे..सहूलियत थी, क्योंकि समाज नहीं था एकांत में...

धर्म, समाज में अवरोध पैदा करता है..... यो कहें तो समाज के विरोध में धर्म है। मुझे लगता है समाज अपने बनाये तौर तरीकों से अपने परिवेश निर्मित करता है और धर्म उसमें सत्य के पौधे लगाता है जिनमें से सुन्दर फूल आयें और सुगन्ध बहे। धर्म चित्त की दशा ठीक करने पर जोर देता है और चित्त की दशा आत्मानुशासन पर जोर देती है। यह यह आत्मानुशासन इस बात के लिए है कि जो तुम अपने लिए नहीं चाहते उसे दूसरे पर मत करो...जैसा तुम अपने लिए चाहते हो ठीक वैसा ही दूसरे के लिए भी चाहो...

इसलिए जो शांत और स्थिर बैठे हैं तुम उनका अनुसरण करने को तैयार होते हो क्योंकि कुछ अधिक करना बाकी न रहा। तुमने उनके शांत होने और स्थिर बैठने के पूर्व की साधना पर गौर हीं नहीं किया कि वे कितने अथक प्रयत्नों से गुजरे... क्या नहीं किया ऐसे हो जाने के लिए जो वे दीखते हैं अब हमें ऐसे...


कृष्ण को मानने में कष्ट है... कृष्ण भागते हुए से हैं वे सदा तुम्हें दौड़ते रहने को ही कहेंगे, उनके अक्स को तुम अपना न कह सकोग, तुम कृष्ण की तरह मुस्कुरा नहीं सकते, नाच नहीं सकते, प्रेम नहीं कर सकते, दुष्टों का दमन नहीं कर सकते, राजनीति की सर्वोच्च विपदाओं में निर्णय लेने का साहस तो क्या उसकी आंधी के सामने खड़े रहने का स्वप्न भी नहीं देख सकते, कृष्ण पूरे जीवन अपने परिवेश को बदलने में ही लगे रहे, जन्म से स्थितियों का जो दंश उन्होंने झेला, व्यवस्था के परिवर्तन को अपने जीवन के केन्द्र में रखा, पूरे जीवन प्रयोग करते रहे अपने पर ही....उनके जीवन में परिवर्तन की धारा अपने इतने वैविध्य में दीखती है कि जो व्यक्ति उस जैसे जीवन को अंगीकर न करे वह कृष्ण के जैसा हो जाने की कल्पना ही अपराध करने जैसा मान लेगा। 


देश पिछले कई सालों से गांधी का देश कहलाता है। गांधी सत्य के मार्गी हैं और सत्य इतना विशाल भाव है कि वह व्यक्ति का व्यक्तिव हो जाता है। अब गांधी एक भाव हैं.. सत्य का भाव.. इसलिए इतने सालों में किसी को यह हिम्मत नहीं आई कि वे वे अपने आप को गांधी के जैसे या गांधी डुप्लीकेट या फोटो कापी ही कहलवा लें। देश की राजनीति में किसी भी व्यक्ति को मौका ही नहीं मिला, यों कहें कि अब हमारे देश की रीति-नीति और राजनीति ने उन सारी संभावनाओं को खारिज कर दिया है जहां बहुत सारे गांधी आज देश के लिए कुछ करते होते...

64 साल के बाद हमें उस भाव की झलक दीखती है जो हमें दिखता था गरीब और बेबस लोगों के पक्ष में पिटते हुए हिंसा न करने का संकल्प साधे व्यक्ति में.., जब राजे-महाराजे पुनः राज करने का सपना देखने लगे थे तब अंतिम आदमी के पक्ष में खड़े व्यक्ति में, जब देश स्वतंत्रता का सुख और विभाजन का दुख झेल रहा था तब दीखते थे, भारत के शांतिपूर्ण आदर्श भविष्य के लिए चिंतित व्यक्ति में, वे कहते थे कि जल्दी नहीं है कुछ देर ही सही पर स्वतंत्रता मिले तो सही अर्थों में उसे हम पायें...


और देश उन्हें मानने लगा, समय बीतने लगा.. वे आदर पाते राष्टीय उत्सवों में, नेताओं, अफसरों, राजभवनों में, थानों और कचहरियों में... गांधी की फोटो से तो किसी को इन्कार ही न था। गांधी के विचार गांधी के समर्थकों के निजी पुस्तकालयों में थे। देश के किसी भी नेता का गांधी की समाधि पर सिर झुकाने से हृदय परिवर्तन नहीं हुआ....देश एक दिन गांधी की याद करके उनके किये कामों का उपकार चुका देता। गांधी याद करने के हो गये... लोग गांधी को भूलने लगे....अब तो चुनावों के पोस्टरों में उनकी जगह न रही... यों कहें देश को विकास के रास्ते पर लाने के लिए चरखा कातते गांधी का क्या काम था? सस्ते चश्मे से देखते चरखे को, हाथों में खेत की उगाई रूई लिए धागे से पिण्डा बनाता आदमी अब बड़ी पार्टियों के महत्व का न रहा और गांधी बस खो गये लगते थे...


26 जनवरी को किसी न किसी झांकी में गांधी की जीवन्ता दिखाते उनके जैसे नाक-नक्श वाले आदमी को सरकारी विभाग के लोग अर्जी-फर्जी मेहताना देकर ले आते... उसे झांकी पर सभी को दिखाते...कभी-कभी कोई नेता जब देखता कि कैमरा उसकी अपनी ओर है तो वह उस नकली गांधी के प्रति वैसा ही प्यार दृष्टि प्रकाशित करते कि सारा देश धन्य धन्य हो जाता।

गांधी अब एक विचार हैं, भाव हैं, उर्जा हैं... वे प्रतिउत्तर जो नहीं देते... ? बस गांधी खो ही गये लगते...

देश अपनी राह पर चल पड़ा, उसे जो चाहिए था उसने समझौते किए, आश्वासन लिए, प्रगति के लिए अलिखित मानव मर्यादाओं की चढ़ती बली देख चुप रहे..., आर्थिक समझौते के लिए मान-अपमान सहा और वह पाने की दौड़ में शांमिल हो गया जिसमें उसकी अपनी कोई सोच, खुशी या लक्ष्य नहीं था। पश्चिमी संस्कृति के शारीरिक सुख और उसके साधन अपनी कीमतें वसूलने के लिए आ गये और भारत को अपनी आत्मा उसके बदले बेचनी पड़ी। सामग्री इतनी अधिक महत्वपूर्ण हो गई कि वह भूखे की भूख से अधिक जरूरी हो गई। नियम इतने अधिक महत्वपूर्ण हो गये कि न्याय होता है या अन्याय इसकी चिन्ता ही न रही। व्यापार इतना जरूरी हो गया कि कोई जिन्दा रहे या मर जाये परवाह नहीं...

तो ऐसे देश में होना ही क्या था, अपनी हर चीज बेचो और खरीद लाओ.... सामान, शान-शौकत, सुरक्षा, अपना निजी स्वर्ग। अब कुछ लाने के लिए जो बदले में कुछ तो देना था ? तुमने दिया... अपना ईमान, अपनी सच्चाई, अपनी देशभक्ति, अपनी आत्मा की शुद्धता, अपने चित्त की स्वच्छता...ये सारी चीजें जो तुम्हारे देश ने पिछले दस हजार सालों में कमाई थी तुमने मात्र एक सदी के मजे के लिए गवां दी...

पिछले कई सालों से एक आदमी अपना घर-बार छोड़कर एक मंदिर की सी जगह में रहता अपने को सम्हाले-संजोये सच्चाई के लिए लड़ता बूढ़ा हो जाता है। पीड़ितों के लिए, शोषितों के लिए, मजदूरों के लिए, वह सन्यासी जैसा जीवन बिताता है। अब उनके जीवन की सुनहली शांम होने को है। उन्होंने अपने जीवन को उन मूल्यों के अर्पित किया जिन मूल्यों के लिए गांधी ने अपने को देश के लिए समर्पित कर दिया था। अन्ना ने गांधी के आदर्शो को तो माना लेकिन अन्ना ने जो किया, वह अब अन्ना के ही आदर्श है। अब अन्ना तो खुद के आदर्श बन गये हैं।

इसलिए अब.... आप कहते हैं.. सारा देश कहता है, जो पक्ष में नहीं है वह भी और जो पक्ष में है वह भी कहता है कि अन्ना दूसरे गांधी है। मुझे लगता है कि जैसे गांधी प्रथम और अंतिम हैं वैसे ही अन्ना भी प्रथम और अंतिम हैं। अन्ना ने समाज के लिए अपने को समर्पित किया, यह साधना बिरले ही कर पाते हैं। समय जैसे-जैसे बीतेगा गांधी भगवान होते जायेंगे और अन्ना भी अब इसी रास्ते हैं...

देश सदैव भ्रांति में रहा कि वह, वह है जो शिखर पर है। पर देखें कि, यदि चेत जाये तो देश का प्रत्येक आदमी खुद शिखर हो सकता है और जब हर आदमी गौरीशंकर हो जाये तो फिर यह भ्रष्टाचार और यह सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन से बच नहीं सकती...

इसलिए कहता हूं कि मैं अन्ना नहीं

मैं आगत हूं... कुछ और नई संभावनाओं से भरा...

तुम........... तुम हो कुछ और नई संभावनाओं से भरे...

Tuesday 23 August 2011

देश प्रजा तंत्र मंत्र



Hamara Bharat
भारत हमारा देश है..सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा... हम भारतीय है... हमारा भारत सोने की चिड़िया........ हमारा भारत पूरे विश्व का गुरू............ विश्व की प्राचीन संस्कृतियों में अब तक जीवन्त धर्म का देश भारत...

पहिले पहल यदि कुछ देखने की याद है तो दुनियां कुछ इसी तरह दिखी...
सुबह की दूर से ठन्डी होती आयीं हवायें, आपस में बतियाते पंक्षी, सूरज के उगने की दिशा से आते हुए प्रकाश फैलने की दिशा में जाते दीखते...दूर अलग दिशाओं से आते मंदिरों के घन्टों और अजान के स्वर की गूंज में औंकार के गुन्नाते-झन्नाते स्वर, पास आती खटपटाती गायों-भैसों के मिले-जुले जत्थे और उन्हें हांकता बरेदी रोज ही कृष्ण की याद दिला जाता...
पहिली कक्षा के प्रवेश के लिए पिता के साथ गये तो सीने में गर्मी और कपकपी होने लगी, हेडमास्टर ने पीठ पर होले से थपकी दी कहा ‘लड़का अच्छा है।‘ पूछने लगे बड़े होकर क्या बनोगे ? मैं समझ नहीं सका कि बड़ा होकर क्या बना जाता है। वे ही बोलने लगे ‘ मास्टर का लड़का है बड़ा होकर मास्टर नहीं बनेगा तो क्या बनेगा ? तभी मेरे हृदय में एक बात तौ पैठ गई कि ‘मैं कभी मास्टर तो नहीं बनूंगा’। यह मेरी चेतना का पहला इन्कार था।

घर में किताबों का अंबार, किताबें इतनी कि घर वाचनालय में तब्दील था। घर के हर कोने पर साहित्य संस्कृति की किताबें अपना अधिकार जमा बैठी थी। बीते पांच साल हुए भारत पाकिस्तान युद्ध की खबरें हिन्दोस्तान में छपती थी वे बड़ी-बड़ी तोपें, फाईटर प्लेन, सेना, जोश, हिम्मत दीखती तो बाल मन सोचता बड़े होकर फाईटर पायलट बनूंगा।
  
सुबह के सात बजे गोबर से छितरायी कुलिया से उछल-उछल कर, अपनी चप्पल को बचाते अपनी प्रायमरी पाठशाला के प्रांगण में अपनी-अपनी कक्षाओं की लाइन में सबसे पीछे सावधान, विश्राम, सावधान के बाद तीन लड़कों के गाये राष्टगान अनुशासन का कौतुहल जगाता। गोबर से लिपी-पुते कमरे में जूट की फटी-पुरानी टाट फट्टी पर बैठ पहला जनगणमन...सीखा,


जनगणमन अधिनायक जय हो, भारत भाग्य विधाता।
पंजाब सिंध गुजरात मराठा, द्राविण उत्कल बंगा।
विन्य हिमाचल यमुना गंगा, उच्छल जलध तरंग।
तब शुभना में जागे, तब फिर आशिश मांगे।
गाहे तब जय गाथा।
जन गण मंगल दायक जय हे, भारत भाग्य विधाता ।
जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे .....

दीवार पर टंगा भारत का नक्शा, मास्टर जी बताने लगे कि यहां देखो.. हम देश में इस हिस्से में रहते हैं और यह गीत जो तुम्हें सिखाया वह हमारा राष्टगान  है...बताते उनके चेहरे पर गर्व का भाव और हमारे मन में रोमांच के भाव भर गये। दबी जबान से वे बताते कि उन्होंने भी स्वतंत्रता के आन्दोलन में भाग लिया था। दूसरे दिन वे और भी नक्शे लेकर आये भारत के  भूगोल, राजनैतिक, खनिज, जल, वन के नक्शे...वे बताते गये, हमारा भारत सोने की चिड़िया था.. भारत में अनेक धमों के लोग रहते हैं... उत्तर की ओर से हिमालय... पूर्व की ओर से गहन वन, पश्चिम की ओर से रेगिस्तान और दक्षिण की ओर से समुद्र भारत की रक्षा करता है। वे भारत के बारे में बताते गये और हमारे हृदय में भारत धड़कने लगा, वे कहते कि भारत बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम, का है, ईश्वर और अल्लाह का है, वे कहते कि यह शून्य और सत्य की जमीन है, प्रेम और ईश्वर की जमीन है, रामायण और महाभारत की जमीन है, ऐश्वर्य और वैराग्य की जमीन है, आदि से अन्त की जमीन है। वे यह भी कहते कि पूर्व जन्मों के अच्छे कर्मों के फल से इस जमीन पर पैदा होने का मौका मिलता है। भगवान भी इस भारत भूमि पर जन्म लेने को तरसते हैं। इसी जमीन से जड़ से चेतन की यात्रा का बीज मिलता है। इसी जमीन से जीवन के मर्म का सत्व मिलता है।

हम कक्षाओं आगे बढ़ते गये, पढ़ते गये और हमें रटाया जाता, पढ़ते नहीं तो पीटा जाता, और यदि लिखते नहीं तो अगली कक्षा में जाने लायक नहीं समझा जाता, हां चूंकि मेरे पिता भी मास्टर थे सो इस नाते उत्तीर्ण कर दिया जाता।

हमें सच्चाई, देश-भक्ति, दया-धर्म, की कहानियां पढ़ाई जाती...झूठ, लालच, स्वार्थ, अहंकार, अज्ञान, दुष्टता, बुराई से दूर रहने को कहा जाता, बुराई से पाया धन, दूसरे का धन, झूठा मान-सम्मान से परे रहने की समझाईश दी जाती, अपनी कक्षाओं में चारों तरफ लगी उपदेशों की पट्टियां अपने जीवन में उतारने की हिदायत दी जाती।


हम गुलाम थे और हम आजाद हुए, गुलामी में हमारा देश कैसा था और अंग्रेजों के अत्याचार, देश के लोगों की मजबूरियां, जलियावाला बाग, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, बाल गंगाधर तिलक, शास्त्री जी, नेहरू जी और भारत को गांधी ने आजाद कराया, भारत का बंटवारा, भाखड़ा नंगल बांध और विकास के इतने सारे इंतजाम..

हम अपनी दुनिया में खेलते-कूदते रोज रात आने वाली सुबह के इतजार में सो जाते और फिर तोतों की टें-टें, कौओं की कांव-कांव, और बरेदी की आवाज आने तक तो जाग ही जाते, स्कूल में शाम होने का इंतजार करते खेलने के लिए...

हम बच्चों से विदृयाथी बने, छात्र बने, स्टुडेन्ट बने, स्नातक बने, स्नातकोत्तर बने, फिर काम की तलाश में बेरोजगार बने, जुगाड़ करके पिछले दरवाजे से नौकरी पाई तो वह भी संविदा, जो केवल छोड़ने के लिए ली थी। सो छूट गई...

इतना होने पर भी मन पुरानी यादों में ही लिपटा रहा, मन में बने बुद्ध का आत्म ज्ञान, महावीर का तप, आदि शंकराचार्य का धर्मज्ञानबोध, राम की मर्यादा, कृष्ण का कर्म, कबीर का वैराग्य, मीरा का प्रेम, गांधी की सार्थकता, सरदार पटेल और तिलक का देशप्रेम बोस का बलिदान, नेहरू की भारत की खोज, प्रेमचंद का आम आदमी, अज्ञेय, निराला, पन्त, विनोबा, मदर टेरिसा ऐसे ही अनेक लोगों के काम को मन, मन ही मन गुनता रहा। इनमें से अपने को खोजता जाने क्या क्या सोचता रहा।
एक ऋषि का कथन बरबस याद आता है।
संसार एक जंगल है, इसमें हिरण घास खाता है। हिरण को शेर खा जाता है और शेर को आदमी मार डालता है।
संसार एक समुद्र है। इसमें बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है।


बड़े तूफानों से छोटी घांस तो बच जाती है लेकिन बड़े वृक्ष गिर जाते हैं....
Desh ka Sacca Beta